नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
इस पर शत्रुओं ने उन पर तीरों की वर्षा कर दी, और हुर भी लड़ते हुए वीर-गति को प्राप्त हुए। उन्हीं के साथ उनका पुत्र भी शहीद हुआ।
आश्चर्य होता है और दुःख भी कि इतना सब कुछ हो जाने पर भी हुसैन को इन नर-पिशाचों से कुछ कल्याण की आशा बनी हुई थी। वह जब अवसर पाते थे, तभी अपनी निर्दोषिता प्रकट करते हुए उनसे आत्मरक्षा की प्रार्थना करते थे। दुराशा में भी यह आशा इसलिये थी कि वह हज़रत मोहम्मद के नवासे थे, और उन्हें आशा होती थी कि शायद अब भी मैं उनके नाम पर इस संकट से मुक्त हो जाऊं। उनके इन सभी संभाषणों में आत्मरक्षा की इतनी विशद चिंता व्याप्त है, जो दीन चाहे न हो, पर करुण अवश्य हैं, और एक आत्मदर्शी पुरुष के लिये, जो हो कि स्वर्ग में हमारे लिये अकथनीय सुख उपस्थित है शोभा नहीं देती। हुर के शहीद होने के पश्चात् हुसैन ने फिर शत्रु-सेना के सम्मुख खड़े होकर कहा–
‘‘मैं तुमसे निवेदन करता हूं कि मेरी इन तीन बातों में से एक को मान लो।
(१) ‘‘मुझे यजीद के पास जाने दो कि उससे बहस करूं। यदि मुझे निश्चय हो जायेगा कि वह सत्य पर है, तो मैं उसकी बैयत कर लूंगा।’’
इस पर किसी पाषाण-हृदय ने कहा– ‘‘तुम्हें यजीद के पास न जाने देंगे। तुम मधुरभाषी हो, अपनी बातों में उसे फंसा लोगे, और इस समय मुक्त होकर देश में विद्रोह फैला दोगे।’’
(२) ‘‘जब यह नहीं मानते, तो छोड़ दो कि मैं अपने नाना के रोज़े की मुजाविरी करूँ।’’
(इस पर भी किसी ने उपर्युक्त शंका प्रकट की)
(३) ‘‘अगर ये दोनों बातें तुम्हें अस्वीकार हैं, तो मुझे और मेरे साथियों को पानी दो; क्योंकि प्राणि-मात्र को पानी लेने का हक है।’’
(इसका भी वैसा ही कठोर निराशाजनक उत्तर मिला।)
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