नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
तीसरा दृश्य
(रात का वक्त– हुसैन अब्बास मसजिद में बैठे बातें कर रहे हैं। एक दीपक जल रहा है।)
हुसैन– मैं जब ख़याल करता हूं कि नाना मरहूम ने तनहा बड़े-बड़े सरकश बादशाहों को पस्त कर दिया, और इतनी शानदार खिलाफत कायम कर दी, तो मुझे यकीन हो जाता है कि उन पर खुदा का साया था। खुदा की मदद के बग़ैर कोई इंसान यह काम न कर सकता था। सिकंदर की बादशाहत उसके मरते ही मिट गई, क़ैसर को बादशाहत उसकी जिंदगी के बाद बहुत थोड़े दिनों तक कायम रही, उन पर खुदा का साया न था, वह अपनी हवस की धुन में क़ौमों को फ़तह करते हैं। नाना ने इस्लाम के लिए झंड़ा बुलंद किया, इसी से वह कामयाब हुआ।
अब्बास– इसमें किसको शक हो सकता है कि वह खुदा के भेजे हुए थे। खुदा की पनाह, जिस वक्त हज़रत ने इस्लाम की आवाज उठाई थी, इस मुल्क में अज्ञान का कितना गहरा अंधकार छाया हुआ। वह खुदा की ही आवाज़ थी, जो उनके दिल में बैठी हुई बोल रही थी, जो कानों में पड़ते ही दिलों में गुजर जाती थी। दूसरे मजहब वाले कहते है, इस्लाम ने तलवार की ताकत से अपना प्रचार किया। काश, उन्होंने हज़रत की आवाज सुनी होती! मेरा तो दावा है कि कुरान में एक आयत भी ऐसी नहीं है, जिसकी मंशा तलवार से इस्लाम का फैलाना हो।
हुसैन– मगर कितने अफ़सोस की बात है कि अभी से कौम ने उनकी नसीहतों को भूलना शुरू किया, और वह नापाक, जो उनकी मसनद पर बैठा हुआ है, आज खुले बंदो शराब पीता है।
(गुलाम का प्रवेश)
गुलाम– नबी के बेटे पर खुदा की रहमत हो। अमीर ने आपको किसी बहुत जरूरी काम के लिये तलब किया है।
अब्बास– यह वक्त वलीद के दरबार का नहीं है।
गुलाम– हुजूर, कोई खास काम है।
हुसैन– अच्छा तू जा। हम घर जाने लगेंगे तो उधर से होते हुए जायेगें।
(गुलाम चला जाता है)
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