नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
चौथा दृश्य
(समय– रात। वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं।)
मरवान– अब तक नहीं आए! मैंने आपसे कहा न कि वह हरगिज नहीं आएंगे।
वलीद– आएंगे, और जरूर आएंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है।
मरवान– कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि उन्हें अमीर की वफ़ात की खबर लग गई हो, और वह अपने साथियों को जमा करके हमसे जंग करने आ रहे हों।
(हुसैन का प्रथम वलीद सम्मान के भाव से खड़ा हो जाता है, और दरवाजे पर आकर हाथ मिलाता है। मरवान अपनी जगह पर बैठा रहता है।)
हुसैन– खुदा की तुम पर रहमत हो। (मरवान को बैठे देखकर) मेल फूट और प्रेम द्वेष से बहुत अच्छा है। मुझे क्यों याद किया हैं?
वलीद– इस तकलीफ के लिये माफ़ कीजिए, आपको यह सुनकर अफ़सोस होगा कि अमीर मुआबिया ने वफ़ात पाई।
मरवान– और खलीफ़ा यजीद ने हुक्म दिया है कि आपसे उनके नाम की बैयत ली जाये।
हुसैन– मेरे नजदीक यह मुनासिब नहीं है कि मुझ-जैसा आदमी छुपे-छुपे बैयत ले। यह न मेरे लिए मुनासिब है, और न यजीद के लिए काफी। बेहतर है, आप एक आम जलसा करें, और शहर के सब रईसों और आलिमों को बुलाकर यजीद की बैयत का सवाल पेश करें। मैं भी उन लोगों के साथ रहूंगा, और उस वक्त सबके पहले जवाब देने वाला मैं हूंगा।
वलीद– मुझे आपकी सलाह माकूल होता है। बेशक, आपके बैयत लेने से वह नतीजा न निकलेगा, जो यजीद की मंशा है। कोई कहेगा कि आपने बैयत ली, और कोई कहेगा कि नहीं। और, इसकी तसदीक करने में बहुत वक्त लगेगा। तो जलसा करूं?
मरवान– अमीर, मैं आपको खबरदार किए देता हूं कि इनकी बातों में न आइए। बग़ैर बैयत लिए इन्हें यहां से न जाने दीजिए, वरना इनसे उस वक्त तक बैयत न ले सकेंगे, जब तक खून की नदी न बहेगी। यह चिनगारी की तरह उड़कर सारी खिलाफ़त में आग लगा देंगे।
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