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नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक)

करबला (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8508
आईएसबीएन :978-1-61301-083

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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।


हुसैन, अपने पूज्य पिता की भाँति, साधुओं का-सा सरल जीवन व्यतीत करने के लिए बनाए गए थे। कोई चतुर मनुष्य होता, तो उस समय दुर्गम पहाड़ियों में जा छिपता, और यमन के प्राकृतिक दुर्गों में बैठकर चारों ओर से सेना एकत्र करता। देश में उनका जितना मान था, और लोगों को उन पर जितनी भक्ति थी, उसके देखते २०-२५ हज़ार सेना एकत्र कर लेना उनके लिए कठिन न था। किंतु वह अपने को पहले से हारा हुआ समझने लगे। यह सोचकर वह कहीं भागते न थे। उन्हें भय था कि शत्रु मुझे अवश्य खोज लेगा। वह सेना जमा करने का भी प्रयत्न न करते थे। यहां तक कि जो लोग उनके साथ थे, उन्हें भी अपने पास से चले जाने की सलाह देते थे। इतना ही नहीं, उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मैं खलीफ़ा बनना चाहता हूं। वह सदैव यही कहते रहे कि मुझे लौट जाने दो मैं किसी से लड़ाई नहीं करना चाहता। उनकी आत्मा इतनी उच्च थी कि वह सांसारिक राज्य-भोग के लिए संग्राम-क्षेत्र में उतरकर उसे कलुषित नहीं करना चाहते थे। उनके जीवन का उद्देश्य आत्मशुद्धि और धार्मिक जीवन था। वह कूफ़ा में जाने को इसलिए सहमत नहीं हुए थे कि वहां अपनी खिलाफ़त स्थापित करें, बल्कि इसलिए कि वह अपने सहधर्मियों की विपत्तियों को देख न सकते थे। वह कूफ़ा जाते समय अपने सब संबंधियों से स्पष्ट शब्दों में कह गए थे कि मैं शहीद होने जा रहा हूं। यहां तक कि एक स्वप्न का भी उल्लेख करते थे, जिसमें आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी टेक केवल यह थी कि मैं यजीद के नाम पर बैयत न करूंगा। इसका कारण यही था कि यजीद मद्यप, व्यभिचारी और इस्लाम धर्म के नियमों का पालन न करने वाला था। यदि यजीद ने उनकी हत्या कराने की चेष्टा न की होती, तो वह शांतिपूर्वक मदीने में जीवन-भर पड़े रहते। पर समस्या यह थी कि उनके जीवित रहते हुए यजीद को अपना स्थान सुरक्षित नहीं मालूम हो सकता था। उसके निष्कंटक राज्य भोग के लिए हुसैन का उसके मार्ग से सदा के लिए हट जाना परम आवश्यक था। और, इस हेतु कि खिलाफत एक धर्म-प्रधान संस्था थी, अतः यजीद को हुसैन के रण-क्षेत्र में आने का उतना भय न था, जितना उनके शांति-सेवन का। क्योंकि शांति सेवन से जनता पर उनका प्रभाव बढ़ता जाता था। इसीलिए यजीद ने यह भी कहा था कि हुसैन का केवल उसके नाम पर बैयत लेना ही पर्याप्त नहीं, उन्हें उसके दरबार में भी आना चाहिए। यजीद को उनकी बैयत पर विश्वास न था। वह उन्हें किसी भांति अपने दरबार में बुलाकर उनकी जीवन-लीला को समाप्त कर देना चाहता था। इसलिए यह धारणा कि हुसैन अपने खिलाफ़त कायम करने के लिए कूफ़ा गए, निर्मूल सिद्ध होती है। वह कूफ़ा इसलिए गए कि अत्याचार पीड़ित कूफ़ा निवासियों की सहायता करें। उन्हें प्राण-रक्षा के लिए कोई जगह न दिखाई देती थी।

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