नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 36 पाठक हैं |
अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है?
सरदार– या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।
हुसैन– अब देर करने का मौका नहीं है। चलूं, अम्माजान से रुखसत हो लूं। (फ़ातिमा की क़ब्र पर जाकर) ऐ मादरेजान, तेरा बदनसीब बेटा– जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था, जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था– आज तुझसे रुखसत हो रहा है, और फिर शायद उसे तेरी जियारत नसीब न हो (रोते हैं।)
(मदीने के सब नगरवासियों का प्रवेश)
सब०– ऐ अमीर, आप हमें कदमों से क्यों जुदा करते है? हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और जालिम खलीफ़ा सख्तियां झेले। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं। उसकी रोशनी से दूर होकर हम अंधेरे में खौफ़नाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें हक़ और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें एक और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलाएगा? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।
(रोते है।)
हुसैन– मेरे प्यारे दोस्तों, मैं यहां से खुद नहीं जा रहा हूं। मुझे तकदीर लिए जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नजारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उसे उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूं। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत क़ायम रखना, माल और जर के लिये अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफाई न करना, खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है। शायद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों, शायद हम फिर सूरतों को देख न सकें। हां, शायद फिर हमें बुजुगों की सूरत देखनी नसीब न हो, जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहें, जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खेलाया है। भाइयों, मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को जाहिर कर सकूं, जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की तरह उठा रहा है। मदीने की खाक से जुदा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है, मगर मजबूर हूं। खुदा की और रसूल की यह मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे खून से सींचा जाये, रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो, और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।
|