नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
जुबेर– हबीब, तुमने कूफ़ियों के बारे में जो कुछ कहा, वह बहुत कुछ दुरुस्त है, लेकिन तुम हज़रत हुसैन के दोस्त हो, तुमने कहने में कोई खौफ़ नहीं कि मक्कावाले भी इस मामले में कूफ़ावालों ही के भाई-बंद है। इसके क़ौल और फ़ेल का भी कोई ऐतबार नहीं। कूफ़े की आबादी ज्यादा है, वे अगर दिल से किसी बात पर आ जायें, तो यजीद के दांत खट्टे कर सकते हैं। मक्का की थोड़ी सी आबादी वफ़ादार भी रहे, तो उससे भलाई की उम्मीद नहीं हो सकती। शाम की दो हज़ार फौज़ इन्हें घेर लेने को काफ़ी है। भलाई या बुराई किसी खास मुल्क या कौम का हिस्सा नहीं होती। वही सिपाही जो एक बार मैदान में दिलेरी के जौहर दिखाती हैं, दूसरी बार दुश्मन को देखते ही भाग खड़ी होती है। इसमें सिपाही की खता नहीं; उसके फ़ेल की जिम्मेदारी उसके सरदार पर है। वह अगर दिलेर है, तो सिपाही में दिलेरी की रूह फंक सकता है; कम-हिम्मत है, तो सिपाही की हिम्मत को पस्त कर देगा। आप रसूल के बेटे हैं, आपको भी खुदा ने वही अक्ल और कमाल अता किया है। यह क्योंकर मुमकिन है कि आपकी सोहबत का उन पर असर पड़े। कूफ़ा तो क्या, आप हक को भी रास्ते पर ला सकते हैं। मेरे खयाल में आपको किसी से बदगुमान होने की ज़रूरत नहीं।
अब्बास– जुबेर, सलाह कितनी माकूल हो, लेकिन उसमें गरज की बू आते ही उसकी मंशा फ़ौत हो जाती है।
हुसैन– अगर तुम्हारा इरादा यहां लोगों से बैयत लेने का ही, तो शौक से लो, मैं ज़रा भी दखल न दूंगा।
जुबेर– या हज़रत, मेरा खुदा गवाह है कि मैं आपके मुकाबले में अपने ख़िलाफ़त के लायक नहीं समझता। मैं यदीज की बैयत न करूंगा। लेकिन खुदा मुझे नजात न दे, अगर मेरे दिल में आपका मुक़ाबला करने का ख्याल भी आया हो।
हबीब– या इमाम, अगर तकलीफ न हो, तो सहन में तशरीफ़ लाइए। अजान हो चुकी। लोग आपकी राह देख रहे हैं।
(सब लोग नमाज पढ़ने जाते हैं।)
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