नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
|
4 पाठकों को प्रिय 36 पाठक हैं |
अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
जियाद– मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि इस मौके पर रियाया के साथ मुलायमियत का बर्ताव किया जाये, सरदार को जागीरें दी जायें, उनके वजीफे बढ़ाए जायें, यतीमों और बेवाओं की परवरिश का इंतजाम किया गया। मैंने कूफ़ावालों की खसलत का गौर से मुताला किया है, वे हयादार नहीं है, दिलेर नहीं है, दीनदार नहीं हैं। चंद खास आदमियों को छोड़कर, सब-के-सब लोभी और खुदगर्ज है। बात पर अड़ना नहीं जानते, शान पर मरना नहीं जानते, थोड़े से फायदे के लिये भाई-भाई का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं। कुत्तों को भगाने के लिये लाठी से ज्यादा आसान हड्डी का एक टुकड़ा होता है। सब-के-सब उस पर टूट पड़ते हैं और एक दूसरे की भंभोड़ खाते हैं। खलीफ़ा का खजाना दस-बीस हजार दीनारों के निकल जाने से खाली न हो जायेगा, पर एक कौम हमारे हाथ आ जायेगी। सख्ती कमजोर के हक में वही काम करती है, जो ऐंठन तिनके के साथ। हम ऐंठन के बदले हवा के झोके से तिनकों को बिखेर सकते हैं, फौज से फ़ौज कुचली जा सकती है, एक कौम नहीं।
रूमी– मैं तो हमेशा सख्ती का हामी रहा, और रहूंगा।
शरीक– कामिल हकीम वह हैं, जो मरीज के मिजाज के मुताबिक दवा में तबदीली करता रहे। आपने उस हकीम का किस्सा नहीं सुना, जो हमेशा फ़स्द खोलने की तजवीज किया करता था। एक बार एक दीवाने का फ़स्द खोलने गया। दीवाने ने हकीम की गर्दन इतने जोर से दबाई की हकीम साहब की जूबान बाहर निकल आई। मुल्कदारी के आईने मौंके और जरूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं।
यजीद– जियाद, मैं इस मुआमले में तुम्हें मुख्तार बनाता हूं। मुझे भी कुछ-कुछ आदेश हो रहा है कि कहीं हुसैन के बाद कूफ़ावालों को लुभा न लें। तुम जो मुनासिब समझो, करो। लेकिन याद रखो, अगर कूफ़ा गया, तो तुम्हारी जान उसके साथ जायेगी। यह शर्त मंजूर है।
जियाद– मंजूर है।
यजीद– हुर को ताकीद कर दो कि बहुत नमाज न पढ़े, और मुसलिम को इस तरह तलाश करे, जैसे कोई बखील अपनी खोई मुर्गी को तलाश करता है। तुम्हारी नरमी कमजोरों की नरमी नहीं होनी चाहिए, जिसे खुशामद कहते हैं। उसमें हुकूमत की शान कायम रखनी चाहिए। बस, जाओ।
[जियाद शरीक और कासिद चले जाते हैं।]
|