नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
मुस०– ऐ खुदा के नेक बंदे, मुझे यहां से निकलने का रास्ता बता दो।
हानी– हज़रत मुसलिम! क्या अभी आप यहीं खड़े हैं?
मुस०– आप हैं, हानी? रसूल पाक की कसम, इस वक्त तन में जान पड़ गई। मुझे तो कई आदमियों ने पकड़ लिया, और यहां छोड़कर चल दिए।
हानी– वे मेरे ही आदमी थे। मैंने वहां की हालत देखी, तो आपको वहां से हटा देना मुनासिब समझा। मैंने उन्हें तो ताकीद की थी कि आपको मेरे घर पहुंचा दें।
मुस०– पहले आपके आदमी होंगे, अब नहीं हैं। जियाद की तकरीर ने उन पर भी असर किया है।
हानी– खैर, कोई मुजायका नहीं, मेरा मकान करीब है; आइए। हम सियासत के मैदान में जियाद से नीचा खा गए। उसने यह खबर मशहूर कर दी कि हुसैन आ रहे हैं। इस हीले से लोग जमा हो गए, और उसे उनको फ़रेब देने का मौका मिल गया।
मुस०– मुझे तो अब चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता है।
हानी– जियाद की तकरीर ने सूरत बदल दी। जिन आदमियों ने हजरत के पास खत भेजने पर जोर दिया था, वे भी फ़रेब में आ गए।
[सुलेमान और मुख्तार आते हैं। सुलेमान के सिर पर पट्टी बंधी हुई है।]
मुख०– शुक्र है, आप खैरियत से पहुंच गए। जियाद के आदमी आपको तलाश करते फिरते हैं।
मुस०– हानी, ऐसी हालत में यहां रहकर मैं आपको खतरे में नहीं डालना चाहता। मुझे रुखसत कीजिए। रात को किसी मसजिद में पड़ा रहूंगा।
हानी– मुआज अल्लाह, यह आप क्या फ़रमाते हैं! यह आपका घर है। मैं और मेरा सब कुछ हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार है।
[शरीक का प्रवेश]
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