नाटक-एकाँकी >> करबला (नाटक) करबला (नाटक)प्रेमचन्द
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अमर कथा शिल्पी मुशी प्रेमचंद द्वारा इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद के नवासे हुसैन की शहादत का सजीव एवं रोमांचक विवरण लिए हुए एक ऐतिहासित नाटक है।
नवाँ दृश्य
[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।]
शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना।
हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों में कूबत बाकी नहीं रखी।
शरीक– इसमें पसोपेशे की मुतलक जरूरत नहीं। हक की हिमायत के लिये, इस्लाम की हिमायत के लिये, कौम की हिमायत के लिये, अगर खून का दरिया बहा दिया जाये, तो उसमें फरिश्ते वजू करें। औलिया की रूहें उसमें नहाएंगी। जो हाथ हक की हिमायत में न उठे, वह अंधी आँखों से, बुझे हुए चिराग से, दिन के चांद से भी ज्यादा बेकार है। इस्लाम की खिदमत को इससे बेहतर मौका आपको फिर न मिलेगा– शायद फिर कभी किसी को न मिलेगा। कूफ़ा और बसरा पर कब्जा करके यजीद की बड़ी-से-बड़ी फ़ौज का मुकाबला कर सकते हैं। यजीद की खिलाफ़त इस्लाम को दुनियादारी और इस्लाम की तरफ ले जायेगी और हुसैन की खिलाफ़त हक और सच्चाई की तरफ। क्या यह आपको मंजूर है कि यजीद के हाथों इस्लाम तबाह हो जाये।
[जियाद आता है, और मुसलिम बग़ल की कोठरी में छिप जाते हैं।]
जियाद– अस्सलामअलेक या शरीक, तुम्हारी हालत तो बहुत खराब नजर आती है।
हानी– कल से आँखें नहीं खोली। सारी रात कराहते गुजरी है।
शरीक– खुदा फरमाता है– हक के वास्ते जो तलवार उठाता है, उसके लिये जन्नत का दरवाजा खुला हुआ हुआ है।
जियाद– शरीक, शरीक! कैसी तबीयत है?
शरीक– शौक कहता था कि हां, हसरत यह कहती थी, नहीं; मैं इधर मुश्किल में था, कातिल उधर मुश्किल में था।
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