उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त साँवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गयी थी; पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पन्द्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत-कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।
उसने मुस्कराकर कहा– ‘कुछ नहीं जी, रोता कौन है।’
‘आप रोते हैं और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ?’
अमरकान्त की आँखें फिर भर आयीं। लाख यत्न करने पर भी आँसू न रुक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला– ‘क्या फ़ीस के लिए रो रहे हो? भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया। तुम मुझे भी ग़ैर समझते हो। क़सम ख़ुदा की, बड़े नालायक़ आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए! दोस्तों से भी यह ग़ैरियत! चलो क्लास में, मैं फ़ीस दिए देता हूँ। ज़रा-सी बात के लिए घण्टे भर से रो रहे हो। वह तो कहो मैं आ गया, नहीं तो आज जनाब का नाम ही कट गया होता।’
अमरकान्त को तसल्ली तो हुई; पर अनुग्रह के बोझ से उसकी गर्दन दब गयी। बोला– ‘क्या पंडितजी आज मान न जायेंगे?’
सलीम ने खड़े होकर कहा–पण्डितजी के बस की बात थोड़े ही है। यही सरकारी क़ायदा है। मगर हो तुम बड़े शैतान, वह तो ख़ैरियत हो गयी, मैं रुपये लेता आया था, नहीं ख़ूब इम्तहान देते। देखो, आज एक ताज़ा गज़ल कही है। पीठ सहला देना–
आपको मेरी वफ़ा याद आयी,
खैर है आज यह क्या याद आयी।
अमरकान्त का व्यथित चित्त इस समय गज़ल सुनने को तैयार न था; पर सुने बग़ैर काम भी तो नहीं चल सकता। बोला– ‘नाजुक चीज़ है। ख़ूब कहा है। मैं तुम्हारी ज़बान की सफ़ाई पर जान देता हूँ।’
सलीम–यही तो ख़ास बात है भाईसाहब! लफ़्जों की झंकार का नाम गज़ल नहीं है। दूसरा शेर सुनो–
फिर मेरे सीने में एक हूक उठी,
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