उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर पान की तश्तरी और तसवीर लेकर चले; पर बाहर न जाकर अपने कमरे में गये और बड़ी उत्सुकता से चित्र पर आँखें ज़मा दीं। उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मनों चित्र ने लज्जा से आँखें नीची कर ली हैं, मानों वह उनसे कुछ कह रही है। उन्होंने तसवीर को उलटकर रख दिया और चाहा कि बाहर चला जाऊँ, लेकिन दिल न माना, फिर तसवीर उठा ली और देखने लगे। आँखों की तृप्ति ही न होती थी। उन्होंने अब तक जितनी मूरतें देखी थीं, उनसे मन में इसकी तुलना करने लगे। मनोरमा ही इससे मिलती थी। आँखें दोनों की एक-सी हैं, बाल नेत्रों के समान विहँसते। वर्ण भी एक से हैं, नख-शिख बिलकुल मिलता-जुलता, किन्तु यह कितनी लज्जाशील है, वह कितनी चपल! यह किसी साधु की शान्ति कुटी की भाँति लताओं और फूलों से लज्जित है, वह किसी गगनस्पर्शी शैल की भाँति विशाल। यह चित्त को मोहित करती है, वह पराभूत करती है। यह किसी पालतू पक्षी की भाँति पिंजरे में गानेवाली, वह किसी अन्य पक्षी की भाँति आकाश में उड़नेवाली; यह किसी कवि-कल्पना की भाँति मधुर और रसमयी, वह किसी दार्शनिक तत्त्व की भाँति दुर्बोध और जटिल!
चित्र हाथ में लिए हुए चक्रधर भावी जीवन के मधुर स्वप्न देखने लगे। यह ध्यान ही न रहा कि मुंशी यशोदानन्दन बाहर अकेले बैठे हुए हैं। अपना व्रत भूल ही गए, सेवा-सिद्धान्त भूल गए, आदर्श भूल गए, भूत और वर्तमान भूल गए, भविष्य में लीन हो गए, केवल एक ही सत्य था, और वह इस चित्र की मधुर कल्पना थी।
सहसा तबले की थाप ने उनकी समाधि भंग की। बाहर संगीत-समाज ज़मा था। मुंशी वज्रधर को गाने-बजाने का शौक़ था। गला तो रसीला न था; पर ताल-स्वर के ज्ञाता थे। चक्रधर डरे कि दादा इस समय कहीं गाने लगे, तो नाहक भद्द हो। जाकर उनके कान में कहा–आप न गाइएगा। संगीत से रुचि थी; पर यह असह्य था कि मेरे पिताजी कत्थकों के साथ बैठकर एक प्रतष्ठित मेहमान के सामने गाएँ।
जब साज मिल गया, तो झिनकू ने कहा–तहसीलदार साहब, पहले आप ही की हो जाए।
चक्रधर का दिल धड़कने लगा, लेकिन मुंशीजी ने उनकी ओर आश्वासन की दृष्टि के देखकर कहा–तुम लोग अपना गाना सुनाओ, मैं क्या गाऊँ।
झिनकू–वाह मालिक, वाह! आपके सामने हम क्या गाएँगे। अच्छे-अच्छे उस्तादों की तो हिम्मत नहीं पड़ती।
वज्रधर अपनी प्रशंसा सुनकर फूल उठते थे। दो-चार बार तो ‘नहीं-नहीं’ की फिर ध्रुपद की एक गत छेड़ ही दी। पंचम स्वर था, आवाज़ फटी हुई, साँस उखड़ जाती थी, बार-बार खाँसकर गला साफ़ करते थे, लोच का नाम न था, कभी-कभी बेसुरे भी हो जाते थे, पर साज़िन्दे वाह-वाह की धूम मचाए हुए थे, क्या कहना, तहसीलदार साहब! ओ हो!
मुंशीजी को गाने की धुन सवार होती थी, तो जब तक गला न पड़ जाए, चुप न होते थे। गत समाप्त होते ही आपने ‘सूर’ का पद छेड़ दिया और ‘देश’ की धुन में गाने लगे।
झिनकू–यह पुराने गले की बहार है! ओ हो!
वज्रधर–नैर नीर छीजत नहि कबहूँ, निस-दिन बहत पनारे।
झिनकू–ज़रा बता दीजिएगा, कैसे?
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