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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
तहसीलदार साहब ने जेलर की मेज़ से वह काग़ज़ उठा लिया और चक्रधर को दिखाते हुए बोले–बेटा, इसमें कुछ नहीं है। जो कुछ मैं कह चुका हूँ, वही बातें ज़रा कानूनी ढंग से लिखी गई हैं।
चक्रधर ने काग़ज़ को सरसरी तौर से देखकर कहा–इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर क़ैदी बना रहूँगा। मेरा ऐसा ख़याल न था। अपने हाथों अपने पाँवों में बेड़ियाँ न डालूँगा। जब क़ैद ही होना है, तो क़ैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊँगा या सज़ा के दिन काटकर।
यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आए और एकान्त में खूब रोए। आँसू उमड़ रहे थे; पर जेलर के सामने कैसे रोते?
एक सप्ताह बाद मिस्टर जिम के इज़लाम में मुकद्दमा चलने लगा। तहसीलदार साहब ने कोई वकील खड़ा किया न अदालत में आये। यहाँ तो गवाहों के बयान होते थे, और वह सारे दिन जिम के बँगले पर बैठे रहते थे। साहब बिगड़ते थे, धमकाते थे; पर वह उठने का नाम न लेते थे। जिम जब बँगले से निकलते, तो द्वार पर मुंशीजी खड़े नज़र आते थे। कचहरी से आते, तो भी उन्हें वहीं खड़ा पाते। मारे क्रोध के लाल हो जाते। दो-एक बार घूँसा भी ताना; लेकिन मुंशीजी को सिर नीचा किया देख दया आ गई। अकसर यह साहब के दोनों बच्चों को खिलाया करते, कन्धे पर लेकर दौड़ते, मिठाइयाँ ला-लाकर खिलाते और मेम साहब को हँसने वाले लतीफ़े सुनाते।
आखिर एक दिन साहब ने पूछा–तुम मुझसे क्या चाहता है?
वज्रधर ने अपनी पगड़ी उतारकर साहब के पैरों पर रख दी और हाथ जोड़कर बोले–हुज़ूर सब जानते हैं, मैं क्या अर्ज़ करूँ? सरकार की खिदमत में सारी उम्र कट गई। मेरे देवता तो, ईश्वर तो, जो कुछ हैं, आप ही हैं। आपके सिवा मैं और किसके द्वार पर जाऊँ? किसके सामने जाऊँ? इन पके बालों पर तरस खाइए। मर जाऊँगा। हुज़ूर, इतना बड़ा सदमा उठाने की ताकत अब नहीं रही।
जिम–हम छोड़ नहीं सकता, किसी तरह नहीं।
वज्रधर–हुज़ूर जो चाहे करें। मेरा तो आपसे कहने ही भर का अख़्तियार है। हुज़ूर को दुआ देता हुआ मर जाऊँगा; पर दामन न छोडूँगा?
जिम–तुम अपने लड़के को क्यों नहीं समझाता?
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