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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा–आखिर आप तय क्या कर आये?
मुंशी–हुज़ूर के इकबाल से फ़तह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बातचीत करते झेंपते हैं। आपकी तरफ़ से बातचीत शुरू हो, तो शायद उन्हें इनकार न होगा। मनोरमा रानी तो सुनकर खुश हुईं।
राजा–अच्छा! मनोरमा खुश हुईं। खूब हँसी होगी। आपने कैसे जाना कि खुश है?
मुंशी–हुज़ूर सब कुछ साफ़-साफ़ कह डाला, उम्र का फ़र्क़ कोई चीज़ नहीं, आपस में मुहब्बत होनी चाहिए। मुहब्बत के साथ दौलत भी हो, तो क्या पूछना। हाँ, दौलत इतनी होनी चाहिए, जो किसी तरह कम न हो। और कितनी ही बातें इसी किस्म की हुईं। बराबर मुस्कुराती रहीं।
राजा–तो मनोरमा को पसन्द है?
मुंशी–उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकरायी।
राजा–तो मैं आज ही बातचीत शुरू कर दूँ क़ायदा तो यही है कि उधर से ‘श्रीगणेश’ होता, लेकिन राजाओं में अकसर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है। पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आयी है। मैं आज ठाकुर साहब की दावत करूँगा और मनोरमा को बुलाऊँगा। आप भी ज़रा तक़लीफ़ कीजिएगा।
राजा साहब ने बाक़ी दिन दावत के सामान करने में काटा। हज़ामत बनवायी। एक भी पका बाल न रहने दिया। उबटन मलवाया। अपनी अच्छी-से-अच्छी अचकन निकाली, केसरिया रंग का रेशमी साफ़ा बाँधा, गले में मोतियों की माला डाली, आँखों में सुरमा लगाया, माथे पर केसर का तिलक लगाया; कमर में रेशमी कमरबन्द लपेटा, कन्धे पर शाह रूमाल रखा, मखमली गिलाफ़ में रखी हुई तलवार कमर से लटकायी और यों सज-सजाकर जब वह खड़े हुए तो खासे छैला मालूम होते थे। ऐसा बाँका जवान शहर में किसी ने कम देखा होगा। उनके सौम्य स्वरूप और सुगठित शरीर पर वह वस्त्र और आभूषण खूब खिल रहे थे।
निमंत्रण तो जा ही चुका था। रात के नौ बजते-बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गए। राजा साहब उनका स्वागत करने दौड़े। मनोरमा ने उनकी ओर देखा तो मुस्करायी, मानो कह रही थी–ओ हो! आज तो कुछ और ही ठाठ हैं। उसने आज और ही वेष रचा था। उसकी देह पर एक भी आभूषण न था। केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। उसका रूप-माधुर्य कभी इतना प्रस्फुटित न हुआ था। अलंकार भावों के अभाव का आवरण है। सुन्दरता को अलंकारों की ज़रूरत नहीं। कोमलता अलंकारों का भार नहीं सह सकती।
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