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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अन्त को इस अन्तर्द्वन्द्व में उनकी आत्मा ने विजय पाई। सारी मन की अशांति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियाँ उसी विजय में मग्न हो गईं। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। इसकी परवाह न रही कि ताज़ी हवा मिलती है या नहीं, भोजन कैसा मिलता है, कपड़े कितने मैंले हैं, उनमें कितने चिलवे पड़े हुए हैं कि खुजलाते-खुजलाते देह में दिदोरे पड़ जाते हैं। इन कष्टों की ओर उनका ध्यान ही न जाता। मन अन्तर्जगत् की सैर करने लगा। यह नई दुनिया, जिसका अभी तक चक्रधर को बहुत कम ज्ञान था, इस लोक से कहीं ज़्यादा पवित्र, उज्जवल और शांतिमय थी। यहाँ रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में एक विचित्र ही आनन्द था। वह किसी समाधिस्थ योगी की भाँति घंटों इस अन्तर्लोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग-सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अँधेरे में अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक ही खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था। इसलिए नहीं कि वह अंधकार से ऊब गए थे; बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़नेवाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़पकर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकाश की भी ज़रूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अँधेरे में भी लिख सकता हूँ। यही न होगा कि पंक्तियाँ सीधी न होंगी; पर पंक्तियों को दूर-दूर रखकर और शब्दों को अलग-अलग लिखकर वह इस मुश्किल को आसान कर सकते थे। सोचते, कभी यहाँ से बाहर निकलने पर उस लिखावट को पढ़ने में कितना आनन्द आएगा, कितना मनोरंजन होगा! लेकिन लिखने का सामान कहाँ? बस, यही एक ऐसी चीज़ थी, जिसके लिए वह कभी-कभार विकल हो जाते थे। विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौक़ा फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न आएँगे, लेकिन कैसे मिलें?
चक्रधर के पास कभी-कभी एक बूढ़ा वार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर को प्रसन्नमुख देखकर दो-चार बातें कर लेता था। आह! उससे बातें करने के लिए चक्रधर लालायित रहते थे। उससे उन्हें बन्धुत्व-सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी, चरस-तम्बाकू की इच्छा हो, तो हमसे कहना। चक्रधर को ख़याल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से काग़ज़ के लिए कहूँ? इस उपकार का बदला कभी मौक़ा मिला तो चुका दूँगा। कई दिनों तक तो वह इसी संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूँ या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रहा गया, पूछ ही बैठे–क्यों ज़मादार, यहाँ कहीं काग़ज़-पेंसिल तो मिलेगी?
बूढा वार्डर उनकी पूर्व कथा सुन चुका था, कुछ लिहाज़ करता था। मालूम नहीं, किस देवता के आशीर्वाद से उसमें इतनी इनसानियत बच रही थी। और जितने वार्डर भोजन लाते, वे या तो चक्रधर को अनायास दो-चार ऐंडी-बैंड़ी सुना देते, या चुपके से खाना रखकर चले जाते। चक्रधर को चरित्र-ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था। बूढ़े वार्डर ने सतर्क भाव से कहा–मिलने को तो मिल जाएगा, पर किसी ने देख लिया, तो क्या होगा?
इस वाक्य ने चक्रधर को सँभाल लिया। उनकी विवेक-बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फँस गई थी, जाग उठी। बोले–नहीं, मैं यों ही पूछता था। यह कहते-कहते लज्जा से उनकी ज़बान बन्द हो गई। ज़रा-सी बात के लिए इतना पतन!
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