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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर का रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया। यह सोचकर शरमाए कि लोग अपने मन में पिताजी की हँसी उड़ा रहे होंगे। और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर आ बैठे। जुलूस चला। आगे-आगे पाँच हाथी थे, जिन पर नौबत बज रही थी। उनके पीछे कोतल घोड़ों की लम्बी कतार थी, जिन पर सवारों का दल था। बैंड के पीछे जगदीशपुर के सैनिक चार-चार की कतार में कदम मिलाए चल रहे थे। फिर क्रम से आर्य-महिल-मंडल, खिलाफत, सेवा-समिति और स्काउटों के दल थे। उनके पीछे चक्रधर की जोड़ी थी, जिसमें राजा साहब मनोरमा के साथ बैठे हुए थे। इसके बाद तरह-तरह की चौकियाँ थीं, उनके द्वारा राजनीतिक समस्याओं को चित्रण किया गया था। फिर भाँति-भाँति की गायन मंडलियाँ थीं, जिनमें कोई ढोल-मंजीरे पर राजनीतिक गीत गाती थीं, कोई डंडे बजा-बजाकर राष्ट्रीय ‘हर गंगा’ सुना रही थीं, और दो-चार सज्जन ‘चने ज़ोर गरम और चूरन अमलबेत’ की वाणियों का पाठ कर रहे थे। सबके पीछे बग्घियों, मोटरों और बसों की कतारें थीं, अन्त में जनता का समूह था।

जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर-चौराहे पर पहुँचा। यहाँ मुंशीजी के मकान के सामने बहुत बड़ा शामियाना तना हुआ था। निश्चय हुआ था कि यहीं सभा हो और चक्रधर को अभिनन्दन-पत्र दिया जाये। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनानेवाली थी, लेकिन जब लोग आ-आकर पंडाल में बैठे और मनोरमा अभिनन्दन पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुँह से एक शब्द न निकला। आज एक सप्ताह से उसने जी तोड़कर स्वागत की तैयारियाँ की थीं, दिन-को-दिन और रात-को-रात न समझा था, रियासत के कर्मचारी दौड़ते-दौड़ते तंग आ गए थे। काशी जैसे उत्साहहीन नगर में ऐसे जुलूस का प्रबन्ध करना आसान काम न था। विशेष करके चौकियों और गायन मंडलियों का आयोजन करने में उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े थे और कई मंडलियों को दूसरे शहरों से बुलाना पड़ा था। उसकी श्रमशीलता और उत्साह देख-देखकर लोगों को आश्चर्य होता था, लेकिन जब वह शुभ अवसर आया कि वह अपनी दौड़-धूप का मनमाना पुरस्कार ले, तो उसकी वाणी धोखा दे गई। फिटन में वह चक्रधर के सम्मुख बैठी थी। राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बातें करते रहे; पर मनोरमा वहाँ चुप ही रही। चक्रधर ने उसकी आशा के प्रतिकूल उससे कुछ न पूछा। यह अगर उसका तिरस्कार नहीं, तो क्या था? हाँ, यह मेरा तिरस्कार है, वह समझते हैं, मैंने विलास के लिए विवाह किया है। इन्हें कैसे अपने मन की व्यथा समझाऊँ कि यह विवाह नहीं, प्रेम की बलि-वेदी है।

मनोरमा को असमंजस में देखकर राजा साहब ऊपर आ खड़े हुए और उसे धीरे से कुर्सी पर बिठाकर बोले–सज्जनों, रानीजी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरी बातों में कहाँ? कोयल के स्थान पर कौआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंह ने ले ली है। आप लोगों को ज्ञात होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं। अपने गुरु का सम्मान करना शिष्य का धर्म है; किन्तु रानी साहबा का कोमल हृदय इस समय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए जगह ही नहीं रही। इसके लिए वह क्षम्य हैं। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दीनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म और जाति-प्रेम की उपासना की है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।

एक सज्जन ने टोका–आप ही ने तो उन्हें सज़ा दिलायी थी?

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