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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या ने उत्तर न दिया। चक्रधर के चरणों पर सिर झुकाए बैठी रही। चक्रधर फिर बोले–मुझे लज्जित न करो! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिलकुल उलटी बात कर रही हो। कहाँ है वह छुरी, ज़रा उसके दर्शन तो कर लूँ।

अहिल्या ने उठाकर काँपते हाथों से फर्श का कोना उठाया और नीचे से छुरी निकालकर चक्रधर के सामने रख दी। उस पर रुधिर जमकर काला हो गया था।

चक्रधर ने पूछा–यह छुरी यहाँ कैसे मिल गई, अहिल्या? क्या साथ लेती आयी थीं?

अहिल्या ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया–उसी की है।

चक्रधर–तुम्हें कैसे मिल गई?

अहिल्या ने सिर झुकाए ही जवाब दिया–यह न पूछिए। अबला के पास कौशल के सिवाय आत्मरक्षा का कौन साधन है।

चक्रधर–यही तो सुनना चाहता हूँ, अहिल्या!

अहिल्या ने सिर उठाकर चक्रधर की ओर मानपूर्ण नेत्रों से देखा और बोली–सुनकर क्या कीजिएगा?

चक्रधर–कुछ नहीं, यों ही पूछा रहा था।

अहिल्या–नहीं, आप यों ही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है। अगर भ्रम है, तो मेरी अग्निपरीक्षा ले लीजिए।

चक्रधर ने देखा, बात बिगड़ रही है। इस एक असामयिक प्रश्न ने इसके हृदय के टूटे हुए तार को चोट पहुँचा दी। वह समझ रही है, मैं इस पर सन्देह कर रहा हूँ। सम्भावना की कल्पना ने इसे सशंक बना दिया है! बोले–तुम्हारी अग्निपरीक्षा तो हो चुकी अहिल्या, और तुम उसमें खरी निकलीं। अब भी अगर किसी के मन में सन्देह हो तो यही कहना चाहिए कि वह अपनी बुद्धि खो बैठा है। तुम नवकुसुमित पुष्प की भाँति उज्जवल हो। मेरे मन में सन्देह का लेश भी होता, तो मुझे यहाँ खड़ा न देख़तीं! वह प्रेम और अखंड विश्वास, जो अब तक मेरे मन में था, कल प्रत्यक्ष हो जायेगा। अहिल्या, मैं कब का तुम्हें अपने हृदय में बिठा चुका। वहाँ तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, सन्देह और कलंक का घातक हाथ वहाँ उसी वक़्त पहुँचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि दुर्ग विध्वंस हो जायेगा। चलो, चलें। माताजी घबरा रही होंगी!

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