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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
सहसा अहिल्या ने कहा–मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएँगे। कदाचित् आपके माता-पिता तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूँ, लेकिन आपके तिरस्कार और अपमान का ख़याल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा ने मुझे अब तक जीवित रखा है। मैं आपको अपनी कालिमा से कलुषित करने के पहले मर जाना ही अच्छा समझती हूँ।
चक्रधर की आँखें करुणार्द्र हो गईं। बोले–अहिल्या ऐसी बातें न करो। अगर संसार में अब भी कोई ऐसा क्षुद्र प्राणी है, जो तुम्हारी उज्ज्वल कीर्ति के सामने सिर न झुकाए, तो वह स्वयं नीच है, वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। तुम इन बातों को भूल जाओ। हम और तुम प्रेम का आनन्द भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं। ऐसी कोई विपत्ति नहीं है, जिसे प्रेम न टाल सके। मैं तुमसे विनती करता हूँ अहिल्या, कि ये बातें फिर ज़बान पर न लाना।
अहिल्या ने अब की स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की वह दाह, जो उसके मर्मस्थल को जलाए डालती थी, इन शीतल आर्द्र शब्दों से शान्त हो गई। शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी दाह-चंचल दृष्टि स्थिर हो गई और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आँखों के सामने दिखाई दी। उसने अपना सिर उनके कन्धे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गईं, जैसे कोई आर्त्तध्वनि सरिता के शान्त, मन्द प्रवाह में विलीन हो जाती है।
संध्या समय अहिल्या वागीश्वरी के चरणों में सिर झुकाए रो रही थी। चक्रधर खड़े, नेत्रों से उस घर को देख रहे थे, जिसकी आत्मा निकल गई थी। दीपक वही थे; पर उनका प्रकाश मन्द था। घर वही था; पर उसकी दीवारें नीची मालूम होती थीं। वागीश्वरी वही थी; पर लुटी हुई, जैसे किसी ने प्राण हर लिये हों।
२७
बाबू यशोदानन्दन का क्रिया-कर्म हो गया, पर धूम-धाम से नहीं। बाबू साहब ने मरते-मरते ताक़ीद कर दी थी कि मृतक संस्कारों में धन का अपव्यय न किया जाए। यदि कुछ धन ज़मा हो, तो वह हिन्दू-सभा को दान दे दिया जाए। ऐसा ही किया गया।
इसके तीसरे ही दिन चक्रधर का अहिल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन और टालना चाहते थे; लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। पति-रक्षा से वंचित होकर वह पराई कन्या की रक्षा का भार लेते हुए डरती थी। इस उपद्रव ने उसे सशंक कर दिया था। विवाह में कुछ धूमधाम नहीं हुई। हाँ, शहर के कई रईसों ने कन्यादान में बड़ी-बड़ी रकमें दीं और सबसे बड़ी रकम ख्वाज़ा साहब की थी। अहिल्या के विवाह के लिए उन्होंने ४००० रु. अलग कर रखे थे। यह सब कन्यादान में दे दिये। कई संस्थाओं ने भी इस पुण्य कर्म में अपनी उदारता का परिचय दिया। वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शान्त हो गया।
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