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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


रात को दस बजते-बजते गाड़ी बनारस पहुँची। अहिल्या के आश्वासन देने पर भी चक्रधर बहुत चिन्तित हो रहे थे कि कैसे क्या होगा? कहीं पिताजी ने जाते-ही-जाते घुड़कियाँ देनी शुरू कीं और अहिल्या को घर में न जाने दिया, तो डूब मरने की बात होगी। लेकिन उन्हें कितना आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने मुंशीजी को दो आदमियों के साथ स्टेशन पर उनकी राह देखते हुए पाया। पिता की इस असीम, अपार, अलौकिक वात्सल्य ने उन्हें इतना पुलकित किया कि वह जाकर पिता के पैरों पर गिर पड़े। मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेह-कोमल शब्दों में बोले–कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाड़ी से आ रहा हूँ। ख़त तक न लिखा। यहाँ बराबर दस दिन से दो बार स्टेशन पर दौड़ा आता हूँ और एक आदमी हरदम तुम्हारे इन्तज़ार में बिठाए रहता हूँ कि न जाने कब, किस गाड़ी से आ जाओ। कहाँ है बहू? चलो, उतार लाएँ। बहू के साथ यहीं ठहरो। स्टेशन मास्टर से कहकर वेटिंग रूम खुलवाए देता हूँ। मैं दौड़कर ज़रा, बाजे-गाज़े रोशनी-सवारी की फ़िक्र करूँ। बहू का स्वागत तो करना ही होगा। यहाँ लोग क्या जानेंगे कि बहू आई है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई-बन्दों के साथ रस्म-रिवाज़ मनाना ही पड़ता है।

यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहिल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। अहिल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उनकी आँखों से श्रद्धा और आनन्द के आँसू बहने लगे। मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बैठाकर बोले–किसी को अन्दर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई दो घण्टे भर में आऊँगा। तुमसे बड़ी भूल हुई कि मुझे तार न दे दिया। अब बेचारी यहाँ परदेशियों की तरह घण्टों बैठी रहेगी। तुम्हारा कोई काम लड़कपन से खाली ही नहीं होता। रानी कई बार आ चुकी हैं। आज चलते-चलते ताक़ीद कर गई थीं कि बाबूजी आ जाएँ, तो मुझे ख़बर दीजिएगा। मैं स्टेशन पर उनका स्वागत करूँगी और बाबूजी को साथ लाऊँगी। सोचो, उन्हें कितनी तकलीफ़ होगी।

चक्रधर ने दबी ज़बान से कहा–उन्हें तो आप इस वक़्त तकलीफ़ न दीजिए, और आपको भी धूमधाम करने के लिए तकलीफ़ उठाने की ज़रूरत नहीं। सबेरे तो सबको मालूम हो ही जाएगा।

मुंशीजी ने लकड़ी सँभालते हुए कहा–सुनती हो बहू, इसकी बातें? सबेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आई?

मुंशीजी चले गए, तो अहिल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घण्टों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूँ?

चक्रधर लज्जित हो गए। इसका प्रतिवाद तो न किया; पर उनका मन कह रहा था कि इस वक़्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितना ही धूमधाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा ज़रूर। उन्हें यहाँ बैठते अनकूस मालूम होता था। सारी रात का बखेड़ा हो गया। शहर का चक्कर लगाना पड़ेगा, घर पहुँचकर न जाने कितनी रस्में अदा करनी पड़ेंगी, तब जा के कहीं गला छूटेगा। सबसे ज़्यादा उलझन की बात यह थी कि कहीं मनोरमा भी राजसी ठाठ-बाट से न आ पहुँचे। इस शोरगुल से फ़ायदा ही क्या?

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