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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते? मैं संसार में अकेली थी, तुम्हें पाकर दुकेली हो जाऊँगी। मंगला से मैंने प्रेम नहीं बढ़ाया। कल को वह पराए घर चली जाएगी। कौन उसके नाम पर बैठकर रोता! तुम कहीं न जाओगी, तुम्हें सहेली बनाने में कोई खटका नहीं। आज से तुम मेरी हो। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बन्धन में बँधे रहें।
अहिल्या–मैं इसे अपना सौभाग्य समझूँगी। आपके शील स्वभाव की चर्चा करते उनकी ज़बान नहीं थकती।
मनोरमा ने उत्सुक होकर पूछा–सच! मेरी चर्चा कभी करते हैं?
अहिल्या–बराबर, बात-बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं। मैं नहीं जानती कि आपकी वह कौन-सी आज्ञा है, जिसे वह टाल सकें।
इतने में बाज़ों की धोंधों-पोंपों सुनाई दी। मुंशीजी बारात ज़माए चले आ रहे थे। सामान तो पहले से ही ज़मा कर रखे थे, जाकर ले आना था पोशाकें, बाज़ों की तीन-चार चौकियाँ, कई सवारी गाड़ियाँ, दो हाथी, दर्ज़नों घोड़े, एक सुन्दर सुखपाल, ये सब स्टेशन के सामने आ पहुँचे।
अहिल्या के हृदय में आनन्द की तरंगें उठ रही थीं। उसने जिन बातों की स्वप्न में भी आशा न थी, वे सब पूरी हुई जाती थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी इसका इतना आदर सम्मान होगा, उसने कल्पना भी न की थी।
मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे।
एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गई हो।
२८
ठाकुर गुरुसेवक सिंह जगदीशपुर के नाज़िम हो गए थे। इस इलाके का सारा प्रबन्ध उनके हाथ में था। तीनों पहली रानियाँ वहीं राजभवन में रहती थीं। उनकी देख-भाल करते रहना, उनके लिए ज़रूरी चीज़ों का प्रबन्ध करना भी नाज़िम का काम था। या यह कहिए कि मुख्य काम यही था। नज़ामत तो केवल नाम का पद था। पहले यह पद न था। राजा साहब ने रानियों को आराम से रखने के लिए इस नए पद की सृष्टि की थी। ठाकुर साहब जगदीशपुर में राजा साहब के प्रतिनिधि स्वरूप थे।
तीनों रानियों में अब वैर-विरोध कम होता था। अब हर एक को अख़्तियार था, जितने नौकर चाहें रखें, जितना चाहें, ख़र्च करें, जितने गहने चाहें बनवाएँ, जितने धर्मोत्सव चाहें मनाएँ, फिर कलह होता ही क्यों? यदि राजा साहब किसी एक नारी पर विशेष प्रेम रखते और अन्य रानियों की परवाह न करते, तो ईर्ष्यावश लड़ाई होती; पर राजा साहब ने जगदीशपुर में आने की कसम-सी खा ली थी। फिर किस बात पर लड़ाई होती?
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