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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


नारी-बुद्धि तीक्ष्ण होती है। महेन्द्र की समझ में जो बात न आई थीं, वह देवप्रिया समझ गई। उस दिन से वह तपश्विनी बन गई। पति के साए से भी भागती। अगर वह उसके कमरे में आ जाते, तो उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती; पर वह इस दशा में प्रसन्न थी। रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है। उसका प्रेम भी सेवा है, उसका अधिकार भी सेवा है, यहाँ तक कि उसका क्रोध भी सेवा है। विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवाक्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी। उसके लिए सेवा की सीमा वहीं तक थी, जहाँ अनुराग का आरम्भ होता है। उसकी सेवा में पत्नी भाव का अल्पांश भी न आने पाए, यही चेष्टा वह करती रहती थी। अगर विधि को उसके सौभाग्य से आपत्ति है; अगर वह इस अपराध के लिए उसके पति को दंड देना चाहता है, तो देवप्रिया यह साक्षी देने को तैयार थी कि उसने पतिप्रेम का उतना ही आनंद उठाया है, जितना एक विधवा भी उठा सकती है।

एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा–प्रिये, चलो; आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊँ। मेरा हवाई जहाज़ तैयार हो गया है।

महेन्द्र ने सात वर्ष के अनवरत परिश्रम से यह वायुयान बनाया था। इसमें विशेषता यह थी कि तूफान और मेह में भी स्थिर रूप से चला जाता था, मानो नैसर्गिक शक्तियों पर विजय का डंका बजा जा रहा हो। उसमें ज़रा भी शोर न होता था। गति घंटे में एक हज़ार मील की थी। इस पर बैठकर वह पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु को उसके यथार्थ रूप में देख सकते थे, दूर से दूर देशों के विद्वानों के भाषण और गानेवालों के गीत सुन सकते थे, उस पर बैठते ही मानसिक शक्तियाँ दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी। यह एक अद्भुत यंत्र था। महेन्द्र ने अब तक कभी देवप्रिया से उस पर बैठने का अनुरोध न किया था। उनके मुँह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैठूँ, इसकी बड़ी तीव्र उत्कंठा होती थी; पर वह संवरण कर जाती थी। आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा–आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मग्न हूँ।

महेन्द्र–मानव बुद्धि ने अब तक जितने अविष्कार किए हैं, उनका पूर्ण विकास देख लोगी।

देवप्रिया–आप जाइए, मैं नहीं जाती।

महेन्द्र–मैं तो आज तुम्हें जबरदस्ती ले चलूँगा।

यह कहकर उन्होंने देवप्रिया का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा। देवप्रिया का चित्त डाँवाडोल हो गया। जैसे नटखट बालक के बुलाने पर कुत्ता डरता-डरता जाता है कि मालूम नहीं, भोजन मिलेगा या डंडे, उसी भाँति देवप्रिया भी महेन्द्र के साथ चली गई।

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