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उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा इस वक़्त शंखधर को लिए हुए बगीचे की ओर जाती हुई इधर से निकली। चक्रधर को देखकर वह एक क्षण के लिए ठिठक गई। शायद वह देखना चाहती थी कि अहिल्या है या नहीं। अहिल्या होती, तो वह यहाँ दम भर भी न ठहरती, अपनी राह चली जाती। अहिल्या को न पाकर वह कमरे के द्वार पर आ खड़ी हुई और बोली–बाबूजी, रात को सोए नहीं क्या? आँखें चढ़ी हुई हैं!
चक्रधर–नींद ही नहीं आयी। इसी उधेड़बुन में पड़ा था कि रहूँ या जाऊँ? अन्त में यही निश्चय किया कि यहाँ रहना अपना जीवन नष्ट करना है।
मनोरमा–क्यों लल्लू! यह कौन हैं?
शंखधर ने शरमाते हुए कहा–बाबूजी।
मनोरमा–इनके साथ जाएगा?
बालक ने आँचल से मुँह छिपाकर कहा–लानी अम्माँ छाथ?
चक्रधर हँसकर बोले–मतलब की बात समझता है। रानी अम्माँ को छोड़कर किसी के साथ न जाएगा।
शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया–अम्माँ लानी।
चक्रधर–जभी तो चिमटे हो–बैठे बिठाए मुफ्त का राज्य पा गए। घाटे में तो हमीं रहे कि अपनी सारी पूँजी खो बैठे।
मनोरमा ने कहा–कब तक लौटिएगा?
चक्रधर–कह नहीं सकता; लेकिन बहुत जल्द लौटने का विचार नहीं है। इस प्रलोभन से बचने के लिए मुझे बहुत दूर जाना पड़ेगा।
रानी ने मुस्कुराकर कहा–मुझे भी लेते चलिए।
यह कहते-कहते रानी की आँखें सजल हो गईं।
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