उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
वसुमती ने यह सुना, तो आग हो गई। हांडियां चढ़ायें मेरे दुश्मन-जिनकी छाती फटती हो, मैं क्यों हांडी चढ़ाऊं? उत्सव मनाने की बड़ी साध है, तो नये बासन क्यों नहीं मंगवा लेती? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी-भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?
रोहिणी रसोई से बाहर निकलकर बोली-बहन, जरा मुंह संभालकर बातें करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।
वसुमती– अपमान तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन-ठनकर अठिलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।
रोहणी-क्या आज लड़ने ही पर उतारू होकर आई हो क्या? भगवान सब दुःख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यह गहने कपड़े आंखों में गड़ रहे हैं न। न पहनूंगी। जाकर बाहर कह दें, पकवान-प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान आप जानते हैं, पड़ेगी उन पर जिनके कारण यह सब हो रहा है।
यह कहकर रोहिणी अपने कमरे में चली गयी। सारे गहने-कपड़े उतार फेंके और मुंह ढांप कर चारपाई पर पड़ी रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना तो माथा कूटकर बोले-इन चाण्डालिनों से आज शुभोत्सव के दिन भी शान्त नहीं बैठा जाता। इस जिन्दगी से तो मौत ही अच्छी। घर में आकर रोहिणी से बोले-तुम मुंह ढांपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो?
रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया-फट पड़े वह सोना, जिससे टूटे कान! ऐसे उत्सव से बाज आयी, जिसे देखकर घरवालों की छाती फटे।
विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उनके मुंह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा देता है। फिर तुमसे बड़ी भी तो ठहरी, यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।
रोहिणी क्यों दबने लगी। यह उपदेश सुना तो झुंझलाकर बोली-रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहां तक उसका लिहाज करे। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, मुझी को उपदेश करने को दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा कांपता है। तुम न शह देते, तो मजाल थी कि यों मुझे आंखें दिखातीं।
विशालसिंह-तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूं कि तुम्हें गालियां दें?
कुंवर साहब ज्यों-ज्यों रोहिणी का क्रोध शान्त करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बिफरती जाती थी, यहां तक कि अन्त में वह भी नर्म पड़ गये।
वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियों का बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैठूं। अन्त में प्रतिद्वन्द्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर देही दिया। विशालसिंह को मुँह लटकाए रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली-क्या मेरी सूरत न देखने की कसम खा ली है, या तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूं ही नहीं। बहुत दिन तो हो गये रूठे, क्या जन्म भर रूठे ही रहोगे? क्या बात है? इतने उदास क्यों हो?
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