उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
२
चक्रधर डरते हुए घर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि द्वार पर चारपाई पड़ी हुई है, उस पर कालीन बिछी हुई और अधेड़ उम्र के महाशय उस पर बैठ हुए हैं। उसने सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पंखा झल रहा था। चक्रधर के प्राण सूख गये। अनुमान से वह ताड़ गये कि महाशय वर की खोज में आये हैं। निश्चय करने के लिए घर में जाकर माता से पूछा, तो अनुमान सच्चा निकला। बोले-दादाजी ने इनसे क्या कहा?
निर्मला ने मुस्कराकर कहा– नानी क्यों मरी जाती है, क्या जन्म भर क्वाँरे ही रहोगे ।! जाओ बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है।
चक्रधर– यह है कौन?
निर्मला– आगरे की कोई वकील नहीं है; मुंशी यशोदानन्दन।
चक्रधर– मैं तो घूमने जाता हूं। जब यह यमदूत चला जाएगा, तो आऊंगा।
निर्मला– वाह रे शर्मीले! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठे।
इतने में मुंशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो? जरा यहां तो आओ।
चक्रधर के रहे-सहे होश भी उमड़ गये। बोले-जाता तो हूं, लेकिन कहे देता हूं मैं यह जुआ गले में न डालूँगा। जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाय और कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बांधकर गृहस्थी में जुत जाए।
चक्रधर बाहर आये तो, मुंशी यशोदानंदन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले-अब की ‘सरस्वती’ में आपका लेख देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ। इस वैमनस्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताये हैं वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं।
इस स्नेह-मृदुल आलिंगन और सहृदयता-पूर्ण आलोचना के चक्रधर को मोहित कर लिया! वह कुछ जवाब देना ही चाहते थे कि मुंशी वज्रधर बोल उठे- आज बहुत देर लगा दी। राजा साहब से कुछ बातचीत होने लगी क्या।
यह कहकर मुंशीजी घर से चले गए तो यशोदानंदन बोले-अब आपका क्या काम करने का इरादा है?
चक्रधर– अभी तो निश्चय किया है कि कुछ दिनों आजाद रहकर सेवाकार्य करूं।
यशोदा– आप जैसे उत्साही युवकों को ऊँचे आदर्शों के साथ सेवा-क्षेत्र में आना जाति के लिए सौभाग्य की बात है। आपके इन्हीं गुणों ने मुझे आपकी और खींचा है।
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