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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।

१३

चक्रधर को जेल में पहुंचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नयी दुनिया में आ गये। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पड़ता था जितना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है। आदि से अन्त सारा व्यापार घृणित, जघन्य पैशचिक और निन्द्य है। अनीति की भी अक्ल दंग है, दुष्टता भी यहां दातों तले उंगली दबाती है।

मगर कुछ ऐसे भी भाग्यवान हैं, जिनके लिए ये जेल कल्प-वृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कैदी बैल से भी गया-गुजरा है। वह नाना प्रकार के शाक-भाजी और फल-फूल पैदा करता है; पर सब्जी फल और फूलों से भरी हुई डलियां हुक्काम के बंगलों पर पहुंच जाती है। कैदी देखता है और किस्मत ठोंक कर रह जाता है।

चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रातःकाल गेहूं तौलकर दे दिया जाता और सन्ध्या तक उसे पीसना जरूरी था। कोई उज्र या बहाना न सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को कुछ कहने का मौका न मिले, लेकिन गालियों में बातें करना जिनकी आदत हो गयी हो, उन्हें कोई क्योंकर रोकता।

किन्तु विपत्ति का अन्त यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसे अश्लील, ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूंट पीकर रह जाते थे। उनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्नासिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणोत्पादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियां डालनी पड़ती थीं। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तम्बाकू भी न पीने पाये, पर यहां गांजा, भंग, शराब अफीम– यहां तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुंच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दण्ड हो जाते, मानो नर-स्तनधारी राक्षस हों। धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा, इन परिस्थितियों में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जायेगा। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था, पर ऐसे निर्लज्ज, गालियां खाकर हंसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए, मुंहफट, बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी-ऐसी अस्वाभाविक ताड़नाएं मिलती थीं कि चक्रधर के रोएं खड़े हो जाते थे, मगर क्या मजाल कि किसी कैदी की आंखों में आंसू आयें। यह व्यवहार देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते थे कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।

चक्रधर का जीवन कभी इतना आदर्श न था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म कथाएं सुनाते। इन कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था; किंतु इनका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी कभी वे इन कथाओं पर अविश्वासपूर्ण टीकाएं करते और बात हंसी में उड़ा देते। पर अभिव्यक्तिपूर्ण आलोचनाएं सुनकर भी चक्रधर हताश न होते। शनैः-शनै उनकी भक्ति-चेतना स्वयं अदृश्य होती जाती थी।

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