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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बन्दूकों के कुन्दों से मारना शुरू किया।

कैदियों में खलबली मच गयी। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-ला कर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा– मैं आपको फिर समझाता हूं।

दारोगा– चुप रह सुअर का बच्चा!

इतना सुनना था कि चक्रधर बाज की तरह दारोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुंदों की मार पड़नी शुरू हो गयी थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थर की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।

एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति भयंकर हो जाएगी, अभी सिपाही बन्दूकें चलानी शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायेंगे, अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका हो सकता। ललकार कर बोले– पत्थर न फेंको, पत्थर न फेंको! सिपाहियों के हाथों से बन्दूक छीन लो।

सिपाहियों ने संगीने चढ़ानी चाही! लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूकें छीन लीं। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो जरा देर पहले हेकड़ी जताते थे। खड़े दया-प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे, दारोगाजी की सूरत तस्वीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक, हवाइयां उड़ी हुई, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।

कैदियों ने देखा इस वक्त हमारा राज्य है तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्नासिंह लपका हुआ दारोगा के पास आया और जोर से एक धक्का देकर बोला– क्यों साहब, उखाड़ लूं डाढ़ी का एक-एक बाल?

चक्रधर– धन्नासिंह, हट जाओ।

धन्नासिंह– मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें?

चक्रधर– मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हां, मर जाऊं तो जो चाहे करना।

धन्नासिंह– अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं, कितनी सांसत होती है।

इतने से सदर फाटक पर शोर मचा, जिला-मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों और अफसरों के साथ आ पहुंचे थे। दारोगाजी ने अन्दर आते वक्त किवाड़ बन्द कर लिये थे जिससे कोई कैदी भागने न पाये। यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गये कि पुलिस आ गई। बोले– अरे भाई, क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो? बन्दूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गयी।

धन्नासिंह– कोई चिन्ता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा-न्यारा किये डालते हैं। मरते ही हैं तो दो-चार को मार के मरें।

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