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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।

१६

आगरे के हिन्दुओं और मुसलमानों में आये दिन जूतियां चलती रहती थीं। जरा-जरा-सी बात पर दोनों के सिर फिर जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिये की डण्डी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिन्दू का घड़ा छू लिया और मुहल्ले में फौजदारी हो गयी। निज के रगड़े-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाये जाते थे। दोनों ही दल मजहब के नशे में चूर थे।

होली के दिन थे। गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनायी गई थी। संयोग से एक मियां साहब मुर्गी हाथ में लटकाये कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये। बस, गजब ही तो हो गया। सीधे जामे मस्जिद पहुंचे और मीनार पर चढ़कर बांग दी– ये उम्मते रसूल! आज एक काफिर के हाथों से मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए। या तो काफिरों से इस खून का बदला लो, या मैं मीनार से गिरकर नवी की खिदमत से फरियाद सुनाने जाऊं। बोलो मंजूर है?

मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियां बदल गयीं। शाम होते दस हजार आदमी, तलवारें लिए जामे मस्जिद के सामने आकर जमा हो गये।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिन्दुओं के होश उड़ गये। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियां छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियां संभालीं; लेकिन यहां कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश, सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। और अन्त में जब वह निराश होकर उठे; तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे। वे ‘अली’! अली’! का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबा साहब नजर आ गये। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी, ‘मारो!’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये सवाल-जवाब कौन करता। उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शांत हो जायं, तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।

बाबू यशोदान्दन के मरने की खबर पाते ही सेवा-दल के युवकों का खून खौल उठा। दो-सौ युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्ले में घुसे। हिन्दू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे। मुसलमान मुहल्लों में वही हिन्दू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया।

साहसा खबर उड़ी कि यशोदानन्दन के घर में आग लगा दी गयी है और दूसरे घरों में भी आग लगायी जा रही है। सेवा-दल वालों के कान खड़े हुए। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहां यह बड़वानल दहक रहा था। वहां किसी मुसलमान का पता नहीं था, आग लगी थी; लेकिन बाहर की ओर। अन्दर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था बागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बन्द किये बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती बाहर निकल आयी और बोली– हाय! मेरी अहल्या! अरे दौड़ो, उसे ढूंढ़ों, पापियों ने न-जाने उसकी क्या दुर्गति की! हाय! हाय! मेरी बच्ची!

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