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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


मुंशीजी चले गये, तो अहल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। बोली– ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घण्टों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूं।

चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया; पर उनका मन कर रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितनी ही धूम-धाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर।

मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखायी दी।

उसने कहा– वाह बाबूजी, आप चुपके-चुपके बहू को उड़ा लाये और मुझे खबर तक न दी! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने तो अपना घर बसाया, मेरे लिये भी कोई सौगात लाये?

यह कहकर वह अहल्या के पास गयी और दोनों गले मिलीं। मनोरमा ने रूमाल से एक जड़ाऊ कंगन निकालकर अहल्या के हाथ में पहना दिया। अहल्या ने उसे कुर्सी पर बिठा दिया और पान-इलायची देते हुए बोली– आपको मेरे कारण बड़ी तकलीफ हुई। यह आपके आराम करने का समय था।

चक्रधर मौका देखकर बाहर चले गये थे। उनके रहने से दोनों ही में संकोच होता।

मनोरमा ने कहा– नहीं बहन, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं हुई। मैं तो यों भी बारह एक के पहले नहीं सोती। तुमसे मिलने की बहुत दिनों से इच्छा थी। तुम बड़ी भाग्यवान हो। तुम्हारा पति मनुष्य में रत्न है, सर्वथा निर्दोष एवम् सर्वथा निष्कलंक।

अहल्या पति प्रशंसा से गर्वोन्नत होकर बोली– आपके लिए कोई सौगात तो नहीं लाये।

मनोरमा– मेरे लिए तुमसे बढ़कर और क्या सौगात लाते। मैं संसार में अकेली थी। तुम्हें पाकर दुकेली हो गयी

अहल्या– मैं इसे अपना सौभाग्य समझूंगी।

इतने में बाजों की घों-घों-पों-पों सुनायी दी। मुंशीजी बारात जमाये चले आ रहे थे।

अहल्या के हृदय में आनन्द की तरंगें उठ रही थीं। कभी उसका स्वागत इस ठाठ से होगा, कभी एक बड़ी रानी उसकी सहेली बनेगी, कभी उसका इतना आदर-सम्मान होगा, उसने कल्पना भी न की थी।

मनोरमा ने उसे धीरे-धीरे ले जाकर सुखपाल में बिठा दिया। बारात चली। चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे।

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