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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अगहन का महीना था। खासी सरदी पड़ रही थी; मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाये थे। अहल्या के पास तो पुराने कपड़े थे; पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुंशीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फिक्र में थे कि कहीं से रुपये आ जायँ, तो एक कम्बल ले लूं। आज बड़े इन्तजार के बाद लखनऊ के एक मासिक-पत्र के कार्यालय से २५ रु. का मनीआर्डर आया था और वह अहल्या के पास बैठे कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।

इतने में डाकिए ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर खत ले लिया और उसे पढ़ते हुए अन्दर आये। अहल्या ने पूछा-लालाजी का खत है न? लोग अच्छी तरह हैं न?

चक्रधर– मेरे आते ही न जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गयी कि जब देखो एक-न-एक विपत्ति सवार ही रहती है। अभी मंगला बीमार थी, जब अम्मा बीमार हैं। बाबू जी को खांसी आ रही है। रानी साहबा के यहां से अब क्या वजीफा नहीं मिलता है लिखा है कि इस वक्त ५॰ अवश्य भेजो।

अहल्या– क्या अम्माजी बहुत बीमार हैं?

चक्रधर– हाँ, लिखा तो है।

अहल्या– तो जाकर देख ही क्यों न आओ?

चक्रधर– मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्मां की बीमारी तो बहाना है सरासर बहाना।

अहल्या– यह बहाना हो या सच हो, ये पचीस रुपए भेज दो। बाकी के लिए लिख दो कोई फिक्र करके जल्दी ही भेज दूंगा। तुम्हारी तकदीर में इस वर्ष। जड़ावल नहीं लिखा है।

पूस का महीना लग गया। जोरों की सरदी पड़ने लगी। स्नान करते समय ऐसा मालूम होता था कि पानी काट खाएगा; पर अभी चक्रधर जड़ावल न बनवा सके। एक दिन बादल हो आये और ठण्डी हवा चलने लगी। सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, एक बार उन्होंने अहल्या की ओर देखा। वह हाथ-पांव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े एक गठरी की तरह पड़ी हुई थी। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। उनकी अन्तरात्मा सहस्त्रों जिह्वाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। तेरी लोक सेवा केवल भ्रम है; कोरा प्रमाद। जब तू इस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझ पर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तू जनता का उपकार क्या करेगा?

दूसरे दिन वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गये; बल्कि अपने कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी; लेकिन अधिकांश समय पुस्तकें और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गयी। पहले ऊपर की खेती करते थे, जहां न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के सम्पादक उनसे आग्रह करके उनसे लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा अलंकृत होती थी, भाव भी सुन्दर, विषय भी उपयुक्त। दर्शन में उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।

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