उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले-यह कौन अन्दर आया, नोरा? ये लोग क्यों मुझे घेरे हुए हैं? मुझे कुछ नहीं हुआ है। लेटा हुआ बातें कर रहा हूं।
मनोरमा ने धड़कते हुए हृदय से उमड़ने वाले आसुंओं को दबाकर पूछा-क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?
हरसेवक-वह कुछ नहीं था नोरा! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये; बुरे काम बहुत किये। अच्छे काम जितने किये वे लौंगी ने किये। बुरे काम जितने किये, वे मेरे हैं। उन दंड का भागी मैं हूं। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शान्त होती। मनोरमा आसुंओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य प्रकाश कुछ क्षीण हो गया, मानो सन्ध्या हो गयी है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।
दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाये हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण-स्वर में पुकारा-नोरा!
मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा– खड़ी हूं, दादाजी!
दीवान-जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहां नहीं है? मेरा दान-पत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूं। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना।
मनोरमा अन्दर जाकर रोने लगी। अब आंसुओं का वेग उसके रोके न रुका; थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुंचे। अहल्या भी उनके सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डॉक्टर भी आ पहुंचा। किन्तु दीवान साहब ने आंखें न खोलीं। अचेत पड़े हुए थे; किन्तु आँखों से आंसू की धारें बह-बहकर गालों पर आ रही थीं।
एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया-आ गयी, आ गयी! यह लौंगी थी।
लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहल्या रह गयी।
लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा– प्राणनाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?
दीवान साहब की आँखें खुल गयीं। उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किन्तु कितना प्रेम!
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