उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
कृष्णा–मंसाराम को तुम भी बहुत प्यार करती थीं?
निर्मला–वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदार आंखें मैंने किसी की नहीं देखीं। कमल की भांति मुख हरदम खिला रहता था। ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग में फांद जाता। कृष्णा, मैं तुमसे कहती हूं, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता, तो मैं अपने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करुं। मेरे मन में पाप का लेश भी न था। अगर एक क्षण के लिए भी मैंने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आंखें फूट जायें, पर न जाने क्यों उसे अपने पास देखकर मेरा हृदय फूला न समाता था। इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वांग रचा नहीं तो वह घर में आता ही न था। यह मै। जानती हूं कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सब कुछ कर सकती थी।
कृष्णा–अरे बहिन, चुप रहो, कैसी बातें मुंह से निकालती हो?
निर्मला–हां, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी, लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता। तू ही बता- एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाये, तो तू क्या करेगी?
कृष्णा–बहिन, मैं तो जहर खाकर सो रहूं। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने।
निर्मला–तो बस यही समझ ले। उस लड़के ने कभी मेरी ओर आंख उठाकर नहीं देखा, लेकिन बुड्ढे तो शक्की होते ही हैं, तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी। जिसे दिन उसे मालूम हो गया कि पिताजी के मन में मेरी ओर से सन्देह है, उसी दिन के उसे ज्वर चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा। हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आंखों से नहीं उतरता। मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वर में बेहोश पड़ा था, उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्यों ही मेरी आवाज सुनी, चौंककर उठ बैठा और ‘माता-माता’ कहकर मेरे पैरों पर गिर पड़ा (रोकर) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूं। मेरे पैरों पर ही वह मूर्छित हो गया और फिर आंखें न खोली। डॉक्टर ने उसकी देह मे ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यही सुनकर मैं दौड़ी गई थी लेकिन जब तक डॉक्टर लोग वह प्रक्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण, निकल गए।
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