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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे। दो आने की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल में क्या कहेगा?

मिठाई लिए हुए मुंशीजी अन्दर चले गये। सियाराम ने मिठाई का बड़ा-सा दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ। अब वह किस मुंह से मिठाई लेने अन्दर जायेगा। बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन जियाराम को चोटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा।

सहसा भूंगी ने दो तश्तरियां दोनो के सामने लाकर रख दीं। जियाराम ने बिगड़कर कहा–इसे उठा ले जा!

भूंगी–काहे को बिगड़ता हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?

जियाराम–मिठाई आशा के लिए आयी है, हमारे लिए नहीं आयी? ले जा, नहीं तो सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते है। और यहां रुपये की मिठाई आती है।

भूंगी–तुम ले लो सिया बाबू, यह न लेंगे न सहीं।

सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डाँटकर कहा–मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा। लालची कहीं का!

सियाराम यह धुड़की सुनकर सहम उठा, मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी। निर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशीजी ने कड़ी कसम रख दी।

निर्मला–आप समझते नहीं है। यह सारा गुस्सा मुझ पर है।

मुंशीजी–गुस्ताख हो गया है। इस खयाल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग कहेंगे, बिना मां के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी भर में निकाल दूं।

निर्मला–इसी बदनामी का तो मुझे डर है।

मुंशीजी–अब न डरुंगा, जिसके जी में जो आये कहे।

निर्मला–पहले तो ये ऐसे न थे।

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