उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी। अब आकर बोली-बेटा आपने बराबर का हो जाये तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए।
मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा–मैं इसे घर से निकालकर छोडूंगा। भीख मांगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं।
रुक्मिणी–नाक किसकी कटेगी?
मुंशीजी–इसकी चिन्ता नहीं।
निर्मला–मैं जानती कि मेरे आने से यह तुफान खड़ा हो जायेगा, तो भूलकर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे न रहा जायेगा।
रुक्मिणी–तुम्हारा बहुत लिहाज करता है बहू, नहीं तो आज अनर्थ ही हो जाता।
निर्मला–अब और क्या अनर्थ होगा दीदीजी? मैं तो फूंक-फूंककर पांव रखती हूं, फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पांव रखते देर नहीं हुई और यह हाल हो गेया। ईश्वर ही कुशल करे।
रात को भोजन करने कोई न उठा, अकेले मुंशीजी ने खाया। निर्मला को आज नयी चिन्ता हो गयी- जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता तो विशेष चिन्ता न थी। अब तो एक नयी विपत्ति गले पड़ गयी थी। वह सोच रही थी- मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?
२०
चिन्ता में नींद कब आती है? निर्मला चारपाई पर करवटें बदल रही थी। कितना चाहती थी कि नींद आ जाये, पर नींद ने न आने की कसम सी खा ली थी। चिराग बुझा दिया था, खिड़की के दरवाजे खोल दिये थे, टिक-टिक करने वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रख आयी थी, पर नींद का नाम था। जितनी बातें सोचनी थीं, सब सोच चुकी, चिन्ताओं का भी अन्त हो गया, पर पलकें न झपकीं। तब उसने फिर लैम्प जलाया और एक पुस्तक पढ़ने लगी। दो-चार ही पृष्ठ पढ़े होंगे कि झपकी आ गयी। किताब खुली रह गयीं।
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