लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


जियराम–सच?

भूंगी–हां भैया, बार-बार कहती है कि तफ्तीश न कराओ। गहने गये, जाने दो, पर बाबूजी मानते ही नहीं।

पांच-छ: दिन तक जियाराम ने पेट भर भोजन नहीं किया। कभी दो-चार कौर खा लेता, कभी कह देता, भूख नहीं है। उसके चेहरे का रंग उड़ा रहता था। रातें जागतें कटतीं, प्रतिक्षण थानेदार की शंका बनी रहती थी। यदि वह जानता कि मामला इतना तूल खींचेंगा, तो कभी ऐसा काम न करता। उसने तो समझा था- किसी चोर पर शुबहा होगा। मेरी तरफ किसी का ध्यान भी न जायेगा, पर अब भण्डा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदार जिस ढंग से छान-बीन कर रहा था, उससे जियाराम को बड़ी शंका हो रही थी।

सातवें दिन संध्या समय घर लौटा तो बहुत चिन्तित था। आज तक उसे बचने की कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कहीं बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल के बरामद होने की खबर मिल गयी थी। इसी दम थानेदार कांस्टेबिल के लिए आता होगा। बचने को कोई उपाय नहीं। थानेदार को रिश्वत देने से सम्भव है मुकदमे को दबा दे, रुपये हाथ में थे, पर क्या बात छिपी रहेगी? अभी माल बरामद नही हुआ, फिर भी सारे शहर में अफवाह थी कि बेटे ने ही माल उड़ाया है। माल मिल जाने पर तो गली-गली बात फैल जायेगी। फिर वह किसी को मुंह न दिखा सकेगा।

मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराये हुए थे। सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये।

निर्मला ने कहा–कपड़े क्यों नहीं उतारते? आज तो और दिनों से देर हो गयी है।

मुंशीजी–क्या कपडे ऊतारुं? तुमने कुछ सुना?

निर्मला–क्य बात है? मैंने तो कुछ नहीं सुना?

मुंशीजी–माल बरामद हो गया। अब जिया का बचना मुश्किल है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book