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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…

२३

मुंशीजी पांच बजे कचहरी से लौटे और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह, उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुंह सूख गया। निर्मला समझ गयी, आज दिन खाली गया। निर्मला ने पूछा–आज कुछ न मिला।

मुंशीजी–सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा।

निर्मला–फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ?

मुंशीजी–मेरे मुवक्किल को सजा हो गयी।

निर्मला–पंडित वाले मुकदमे में?

मुंशीजी–पंडित पर डिग्री हो गयी।

निर्मला–आप तो कहते थे, दावा खरिज हो जायेगा।

मुंशीजी–कहता तो था, और जब भी कहता हूं कि दावा खारिज हो जाना चाहिए था, मगर उतना सिर मगजन कौन करे?

निर्मला–और सीरवाले दावे में?

मुंशीजी–उसमें भी हार हो गयी।

निर्मला–तो आज आप किसी अभागे का मुंह देखकर उठे थे।

मुंशीजी से अब काम बिलकुल न हो सकता था। एक तो उसके पास मुकदमे आते ही न थे और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपये उधार लाकर निर्मला को देते, प्राय: सभी मित्रों से कुछ-न-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।

निर्मला ने चिन्तापूर्ण स्वर में कहा–आमदनी का यह हाल है, तो ईश्श्वर ही मालिक है, उस पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल है। भूंगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटा। कितना कहकर हार गयी कि लकड़ी लेते आओ, पर सुना ही नहीं।

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