उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
कृष्णा–चन्दर इतना बदमाश है, उसे कोई नहीं भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी नहीं करतीं।
एकाएक चन्दर धम-धम करता हुआ छत पर आ पहुँचा और निर्मला को देखकर बोला-अच्छा! आप यहां बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दूल्हन बनेंगी, पालकी पर चढ़ेंगी ओहो! ओहो!
चन्दर का पूरा नाम चन्द्रभानु सिनहा था। निर्मला से तीन साल छोटा और कृष्णा से दो साल बड़ा।
निर्मला–चन्दर, मुझे चिढ़ाओगे तो अभी जाकर अम्मा से कह दूँगी।
चन्द्र–तो चिढ़ती क्यों हो? तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो। अब आप दूल्हन बनेंगी! क्यों किशनी तू बाजे सुनेगी न? वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।
कृष्णा–क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?
चन्द्र–हाँ हाँ, बैण्ड से भी अच्छे, हजार गुने अच्छे, लाख गुने अच्छे,। तुम जानो क्या? एक बैण्ड सुन लिया तो समझने लगीं कि उससे अच्छे बाजे नहीं होते। बाजे बजाने वाले लाल-लाल वर्दियाँ और काली काली टोपियाँ पहने होंगे। ऐसे खूबसूरत मालूम होंगे कि तुमसे क्या कहूँ! आतिशबाजियाँ भी होंगी, हवाइयाँ आसमान में उड़ जायेंगी और वहां तारों में लगेंगी तो लाल, पीले, हरे, नीले, तारे टूट-टूटकर गिरेंगे। बड़ा मजा आयेगा।
कृष्णा–और क्या-क्या होगा चन्दर, बता दे मेरे भैया।
चन्द्र–मेरे साथ घूमने चल तो रास्ते में सारी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे कि देखकर तेरी आँखें खुल जायेंगी। हवा में उड़ती हुई परियाँ होंगी, सचमुच की परियाँ।
कृष्णा–अच्छा चलो, लेकिन न बताओगे तो मारूँगी।
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