उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
निर्मला देखती थी कि मंसाराम का स्वास्थ्य दिन दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कान्ति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास बदन संकुचित होता जाता है। उसका कारण भी उससे छिपा न था; पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देख-देखकर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था। पर उसकी जवान न खुल सकती थी। वह कभी कभी मन में झुँझलाती कि मंसाराम क्यों जरा सी बात पर इतना क्षोभ करता है? क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया? मेरी और बात है-एक जरा सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है; पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या पर्वाह है?
उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चलकर उन्हें चुप कराऊँ और लाकर खाना खिला दूँ। बेचारे रात भर भूखे पड़े रहेंगे। हाय! मैं इस उपद्रव की जड़ हूँ। मेरे आने के पहले इस घर में शांति का राज्य था। पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही सारी बाधाएँ आ खड़ी हुईं। इनका अन्त क्या होगा? भगवान ही जाने। भगवान मुझे मौत भी नहीं देते। बेचारा अकेले भूखों पड़ा है! उस वक्त भी मुँह तो साल दो साल के बच्चे खा जाते हैं।
निर्मला चली। पति की इच्छा के विरुद्ध चली। जो नाते में उसका पुत्र होता था, उसी को मनाने जाते उसका हृदय काँप रहा था।
उसने पहले रुक्मिणी के कमरे की ओर देखा। वह भोजन कर के बेखबर सो रही थी। फिर बाहर के कमरे की ओर गयी। वहाँ भी सन्नाटा था। मुंशीजी अभी न आये थे। यह सब देख भालकर वह मंसाराम के कमरे के सामने जा पहुँची। कमरा खुला हुआ था, मंसाराम एक पुस्तक सामने रखे मेज पर सिर झुकाये बैठा हुआ था, मानो शोक और चिन्ता की सजीव मूर्ति हो। निर्मला ने पुकारना चाहा पर उसके कंठ से आवाज न निकली।
सहसा मंसाराम ने सिर उठाकर द्वार की ओर देखा। निर्मला को देखकर अँधेरे में पहचान न सका। चौंककर बोला-कौन है?
निर्मला ने काँपते हुए स्वर में कहा–मैं तो हूँ। भोजन करने क्यों नहीं चल रहे हो?
कितनी रात गयी?
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