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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


‘आज और कुशल से बीत जाय, तो फिर कोई भय नहीं।

‘मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ तो भूनकर रख दूँ।
इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा और डोर लिए निकली और सामने कुएँ की ओर चली। प्रभात की सुनहरी मधुर अरुणिमा मूर्तिमान हो गई थी।

दोनों युवक उसकी ओर बढे, लेकिन खजाँचन्द तो दो-चार कदम चल कर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ से लोटा-डोरी ले लिया और खजाँचन्द की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुएँ की ओर चला। खजाँचन्द ने फिर बन्दूक सम्भाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह वह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेशमात्र भी सन्देह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। खजाँचन्द की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप-वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से श्यामा कई बार खजाँचन्द को हताश कर चुकी थी, पर वह अभागा निराश होकर भी न जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहने वाले, एक साथ खेलने वाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ के साथ ही रहती थी, उसकी अभिलाषा थी कि खजाँचन्द उसका दामाद हो। श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अन्तिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाए, लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एकमात्र अवलम्ब है। खजाँचन्द ही वृद्धा का मुनीम, खजाँची, कारिन्दा सब कुछ था, और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे इस जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखायी दिये। जरा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बन्दूक की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे पकड़ न लें, लेकिन कन्धे पर बन्दूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज न दौड़ न सकता था। फासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर फूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फिसल जाय। उधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जा रहे थे। अरबी घोड़ों से उनका मुकाबिला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्मदास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ी देखकर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बंदूक छूटकर गिर पड़ी। पाँचों उसी गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा—उड़ा दो सिर मरदूद का। दगाबाज़ क़ाफिर

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