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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


खजाँ—अगर तुम मुझे काफिर समझते हो, तो समझो। अपने को तुमसे ज्यादा खुदा-परास्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है, और हमारा ईमान हमारी अक्ल...

चारों पठानों के मुँह से निकला, ‘काफिर!’ और चारों तलवारें एक साथ खजाँचन्द की गर्दन पर गिर पड़ीं। लाश जमीन पर तड़पने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खजाँचन्द की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा, पर विधाता को कुछ और ही मन्जूर था। श्यामा तब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्योंही खजाँचन्द जमीन पर गिरा वह झपटकर लाश के पास आयी और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त-प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुन्दर वेल-बूटों वाली साड़ियाँ पहनी होगी, पर इस रक्त-रंजित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटों वाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रंजित साड़ी आत्मा की छवि दिखला रही थी।

ऐसा जान पड़ा, मानो खजाँचन्द की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान् हो गयी हैं। उन नेत्रों में कितना सन्तोष, कितनी तृप्ति कितनी उत्कण्ठा भरी हुई थी! जीवन में जिसने प्रेम की शिक्षा भी न पायी वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा—श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े खून से तर हो गए हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा?

ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन का सुख भोगेंगे।

श्यामा ने तिरस्कार पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है तो जाओ, मेरी चिन्ता मत करो, मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो, तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी काम तमाम करा दो।

धर्मदास करुणा कातर स्वर में बोला—श्यामा, यह तुम क्या कहती हो? तुम भूल गई कि हमसे—तुमसे क्या बातें हुई थीं? मुझे खजाँचन्द के मारे जाने का शोक है, पर भावी को कौन टाल सकता है?

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