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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


मैंने कर्नल साहब को धन्यवाद दिया और मन-ही-मन कहा—काले आदमी का लिखा हुआ पत्र जाली था, और कहीं अगर गोरा आदमी लिखता, तो दो कौन कहे, चार हजार रुपया पहुँच जाता। कितने ही गाँव जला दिये जाते और न जाने क्या-क्या होता।

मैं चुपचाप अपने घर आया बाल बच्चों को पाकर आत्मा सन्तुष्ट हुई। उसी दिन एक विश्वासी अनुचर के द्वारा दो हजार रुपये तूरया के पास भेज दिया।

सरदार ने एक ठंढी साँस लेकर कहा—असदखाँ, अभी मेरी कहानी समाप्त नहीं हुई। अभी तो दुःखान्त भाग अवशेष ही है। यहाँ आकर मैं धीरे-धीरे अपनी सब मुसीबतें भूल गया, लेकिन तूरया को न भूल सका। तूरया की कृपा से ही मैं अपनी स्त्री और बच्चों से मिल पाया था। यही नहीं, जीवन भी पाया था, फिर भला मैं उसे कैसे भूल जाता।

महीनों और सालों बीत गये। मैंने न तो तूरया और न उसके बाप को ही देखा। तूरया ने आने के लिए कहा भी, लेकिन वह आई नहीं। वहाँ से आकर मैंने अपनी स्त्री को मायके भेज दिया था, क्योंकि ख्याल था कि शायद तूरया आये, तो फिर झूठा बनूँगा। लेकिन जब तीन साल बीत गये और तूरया न आयी, तो मैं निश्चिन्त हो गया, और स्त्री को मायके से बुला लिया। हम लोग सुखपूर्वक दिन काट रहे थे कि अचानक फिर दुर्दशा की घड़ी आयी।

एक दिन संध्या के समय इसी बरामदे में बैठा हुआ अपनी स्त्री से बातें कर रहा था कि किसी ने बाहर का दरवाजा खटखाया। नौकर ने दरवाजा खोल दिया और बेधड़क जीना पर चढ़ती हुई एक काबूली औरत ऊपर चली आई। उसने बरामदे में आकर विशुद्ध पश्तो भाषा में पूछा—सरदार साहब कहाँ हैं?

मैंने कमरे के भीतर आकर पूछा—तुम कौन हो, क्या चाहती हो?

उस स्त्री ने कुछ मूँगे निकालते हुए कहा—यह मूँगे मैं बेचने के लिए आई हूँ, खरीदिएगा।

यह कहकर उसने बड़े-बड़े मूँगे निकालकर मेज पर रख दिये।

मेरी स्त्री भी मेरे साथ कमरे के भीतर आई थी, वह मूँगे उठाकर देखने लगी। उस काबुली ने पूछा—सरदार साहब, यह कौन है आप की?

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