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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


सवा चार वर्ष बीत गये। सन्धा का समय है। नैनी जेल द्वार पर भीड़ लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मीयाद पूरी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घर वाले आये हुए हैं, किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अँधेरी कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुककर कमान हो गई  है। देह अस्थिपंजर मात्र रह गई है ऐसा जान पड़ता है किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी मीयाद भी पूरी हो गयी है लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। कौन आवे? आनेवाला था ही कौन?

एक बूढ़े, किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसका कंधा हिलाया और बोला—‘कहो भगत, कोई घर से आया?'

‘भक्तसिंह ने कंपित कंठ-स्वर से कहा—घर पर है ही कौन?'

‘घर तो चलोगे ही?'

‘मेरा घर कहाँ है?'

‘तो क्या यहीं पड़े रहोगे?

अगर यह लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा!'

आज चार साल के बाद भगतसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीवन का सर्वनाश हो गया; आबरू मिट गयी; घर बरबाद हो गया, उसकी स्मृति भी उन्हें असह्य थी; किन्तु आज नैराश्य और दुख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहारा लिया। न जाने उस बेचारे की क्या दशा हुई। लाख बुरा है, तो अपना लड़का ही। खानदान की निशानी तो है, मरूँगा तो चार आँसू तो बहायेगा, दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय! मैंने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीं किया। जरा भी शरारत करता, तो यमदूत की भाँति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बिना पैर धोये चले जाने के दण्ड में मैंने उसे उलटा दिया था। कितनी बार केवल जोर से बोलने पर मैंने उसे तमाचे लगाये थे। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न किया। यह उसी का दण्ड है। जहाँ प्रेम का बन्धन शिथिल हो, वहाँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है?

सबेरा हुआ। आशा का सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियाँ कितनी कोमल और मधुर थी, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का कलरव कितना मीठा! सारी प्रकृति आशा के रंग में रंगी हुई थी; पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर घोर अन्धकार था।

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