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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ



इस्तीफा

दफ्तर का एक बाबू एक बेज़बान जीव है। मजदूर को आँखें दिखाओ, तो वह त्योरियाँ बदलकर खड़ा हो जाएगा। कुली को एक डाँट बताओ, तो सिर से बोझ फेंककर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो वह तुम्हारी ओर गुस्से की निगाह से देखकर चला जायगा। यहाँ तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर दो लत्तियाँ झाड़ने लगता है; मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आँखें दिखायें, डाँट बतायें, दुत्कारें या ठोकर मारे किन्तु उसके माथे पर बल न आयेगा। उसे अपने विचारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो। सन्तोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरजे, उसमें तमाम मानवी अच्छाइयाँ माजूद होती हैं। खँडहर के भी एक दिन भाग्य जागते हैं। दिवाली के दिन उस पर भी रोशनी होती है; बरसात में उस पर हरियाली छाती है, प्रकृति की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है! मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते। इसके पीले चेहरे पर कभी मुस्कराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है! कभी हरा भादों नहीं। लाला फतहचन्द ऐसे ही एक बेज़वान जीव है।

कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फतहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘‘हारचन्द' कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिन्दगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर निराशायें ही थीं। लड़का एक भी नहीं, लड़कियाँ तीन, भाई एक भी नहीं, भौजाइयां दो; गाँठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत; सच्चा मित्र भी नहीं—जिससे मित्रता हुई; उसने धोखा दिया, इस पर तन्दुरुस्ती अच्छी नहीं—बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गये थे। आँखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल पिचके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत, नौ बजे दफ्तर जाते और छः बजे शाम को लौटकर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, उसकी उन्हें बिल्कुल खबर न थी। उनकी दुनिया लोक-परलोक जो कुछ था दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिन्दगी के दिन पूरा करते थे। न धर्म से वास्ता था, न दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद मुद्दत गुज़र गयी थी।

जाड़ों के दिन थे। आकाश पर कुछ-कुछ बादल थे। फतहचन्द साढ़े पाँच बजे दफ्तर से लौटे तो चिराग जल गये थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते। चुपके से चारपाई पर लेट जाते और पन्द्रह-बीस मिनट बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं जाकर उनके मुँह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा तो मालूम हुआ कि दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुँह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास माँज रही थी। बोली—उससे कहे दे, क्या काम है, अभी तो दफ्तर से आये ही हैं और अभी फिर बुलावा आ गया।

चपरासी ने कहा—साहब ने कहा है, अभी बुला लाओ कोई बड़ा जरूरी काम है।

फतहचन्द की खामोशी टूट गयी। उन्होंने सिर उठाकर पूछा—क्या बात है

शारदा—कोई नहीं दफ्तर का चपरासी है।

फतहचन्द ने सहमकर कहा—दफ्तर का चपरासी है! क्या साहब ने बुलाया है

शारदा—हाँ, कहता है, साहब बुला रहे हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो, बुलाया करता है। सबेरे के गये-गये अभी मकान को लौटे हो, फिर भी बुलावा आ गया कह दो नहीं आते—अपनी नौकरी ही लेगा या और कुछ

फतहचन्द ने सँभलकर कहा—जरा सुन लूँ, किसलिए बुलाया है। मैंने तो सब काम खतम कर दिया था, अभी आता हूँ।

शारदा—जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें करने लगोगे तो अन्दर आने की याद भी न रहेगी।

यह कहकर वह प्यालों में थोड़ी-सी दालमोट और सेव लायी। फतहचन्द उठकर खड़े हो गये, किन्तु खाने की चीजें देखकर चारपाई पर बैठ गये और प्याली की ओर चाव से देखकर डरते हुए बोले—लड़कियों को दे दिया है न

शारदा ने आँखें चढ़ाकर कहा—हाँ हाँ दे दिया है, तुम तो खाओ।

इतने में छोटी लड़की आकर सामने खड़ी हो गयी। शारदा ने उसकी ओर क्रोध से देखकर कहा—तू क्या आकर सिर पर सवार हो गयी, जा बाहर खेल

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