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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


सहसा लड़की के ध्यान में आया कि कहीं वह उसको देखने के लिए ही न आया हो। इस विचार के आते ही वह ठहर गई और फिर घूमकर कोठी के बाहर देखने लगी। उसने मदन को वहीं खड़ा देखा तो उसकी ओर चल पड़ी। यह मन में विचार कर रही थी कि यदि वह उसको देखने के लिए आया है तो भली-भांति अपना परिचयदेना चाहिए, जिससे किसी प्रकार की मिथ्या धारणा उसके मन में न रह जाय।

वह कोठी से निकली और सड़क पार कर मदन के सम्मुख खड़ी हो उससे पूछने लगी, ‘कहिये, आप कैसे खड़े हैं यहां पर?’’

मदन को हंसी सूझी। उसने कहा, ‘‘महेश्वरी नाम की किसी एक लड़की का मेरे पास पत्र आया था कि आज सांकाल ठीक साढ़े चार बजे मैं उनके यहां चाय के लिए आऊं। मैं उसी निमन्त्रण पर आया था। किन्तु साढ़े चार बजने में अभी कुछ मिनट शेष थे। इस कारण बाहर ही खड़ा रह गया।’’

महेश्वरी ने समझा कि या तो उसकी किसी सहेली ने उससे हंसी की है अथवा यह स्वयं उससे हंसी कर रहा है। दोनों ही परिस्थितियों में हंसी का उत्तर हंसी में देने के विचार से उससे कहा, ‘‘और यदि कुछ मिनट पूर्व आप कोठी के अन्दर चले जाते तो क्या वह आपको कोठी से बाहर कर देती? नहीं साहब! आइये। मैं गारण्टी करती हूँ कि आपको कोई बाहर नहीं निकालेगा।’’

‘‘पर वे स्वयं कहां हैं। मैं समझता था कि कहीं अभी वह कॉलेज से ही न आई हों। मेरे बाहर खड़ा रहने का यह भी एक कारण था।’’

‘‘बस, वह आने वाली ही होगी। आइये, भीतर आ जाइये। तब तक मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं।’’

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