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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


‘‘सप्ताह में एक तो अवश्य ही लिखा करूंगा और इन आपकी अध्यापिका को अपने प्रत्येक पत्र में कोसा करूंगा।’’

गुरनाम कौर हंस पड़ी। महेश्वरी भी हंसने लगी। उसने चाय बनाकर मदन की ओर एक प्याला सरकाते हुए कहा, ‘‘इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि आपका इनसे एक ही भेंट में इतना प्रेम हो गया है कि आप इनको मेरे साथ एक ही स्तर पर रख रहे हैं? अर्थात् दोनों को पत्र में स्मरण किया करेंगे?’’

‘‘यदि गाली देने को ही प्रेम कहते हैं तो यही समझ लीजिये।’’

‘यह तो मन के मधुर भावों की प्रतिक्रिया मात्र है। आदमी जो मुख से शोर मचा-मचा कर कहता है, उसकी अन्तरात्मा में उसके विपरीत भावना हुआ करती है।’’

‘‘अर्थात्, जिस समय मैं तुम्हारी प्रशंसा किया करता हूं, उस समय मेरे मन में तुम्हारे प्रति घृणा विद्यमान रहती है?’’

‘‘निःस्संदेह! आप आज मेरा वह अनिष्ट करने जा रहे थे, जो प्रायः शत्रु का किया करते हैं। यदि आपके अन्तर्मन में मेरे प्रति स्नेह और आदर होता तो आप ऐसा कभी विचार भी नहीं करते।’’

‘‘तो इसे तुम अनिष्ट मानती हो?’’

‘‘हां, वर्तमान अवस्था में यह अनिष्ट ही होता। मैं तो आपसे ऐसे व्यवहार करने का स्वप्न में भी विचार नहीं कर सकती। वह इस कारण कि मैं आपको अपनी अन्तरात्मा से प्रेम करती हूं।’’

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