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उपन्यास >> प्रगतिशील

प्रगतिशील

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8573
आईएसबीएन :9781613011096

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इस लघु उपन्यास में आचार-संहिता पर प्रगतिशीलता के आघात की ही झलक है।


दादी की बात सुनकर तो दोनों ही लड़कियां हंसने लगीं। गुरनाम कौर ने पूछा, ‘‘तो क्या मांजी! बिना एक भी बात किये बच्चा हो गया था?’’

‘‘बच्चा होने में भी बातों की आवश्यकता होती है क्या? यह तो मैंने कभी किसी के मुख से सुना नहीं।’’

‘‘तो उन पांच वर्षो में आप क्या किया करती थी?’’

‘‘सास की बाते सुना करती थी, अपनी ननदों को झगड़ते देखा करती थी, अपने देवर को अपनी पीठ पर कूदता अनुभव करती थी, प्रातः-सायं परमात्मा का सुमिरण कर लिया करती थी।’’

‘‘बात यह है कि हम लोग पढ़ गये हैं और किताबों में बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं जिनको समझने के लिये परस्पर बातें करनी पड़ जाती हैं। कभी तो बात करने पर भी समझ में नहीं आतीं। कभी समझती हैं तो भिन्न-भिन्न अर्थो में।’’

‘‘तो वह पुस्तक क्या बताती थी?’’

‘‘यह बातें तो कदाचित् पुस्तक लिखने वाला भी स्वयं नहीं जानता होगा।’’

मदन बोला, ‘‘बहिनजी! अम्मा को मत बरगलाओ। किताबें लिखने वाले इतने मूर्ख नहीं होते।’’

‘‘मदन भैया! मैं बरगला नहीं रही। देखिये, मैं दो महापुरुषों की बात कहती हूं। एक तो न्यूटन था। उसने कहा था, ‘मैं तो ज्ञान रूपी सागर के तट पर बैठा हुआ कंकड़ों से खेल रहा हूं। मुझे विदित नहीं कि इस सागर में क्या-क्या रत्न छिपे हुए हैं।’

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