उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
‘तुमसे किसने कहा?’
‘तुम्हारे पिताजी ने!’
‘तो क्या समझ लूं कि उन्होंने कमलाप्रसाद पर मिथ्या दोष लगाया।’
‘नहीं, यह मैं नहीं कहती; मगर भैया में ऐसी आदत कभी न थी।’
‘तुम किसी के दिल का हाल क्या जानो! पहले मैं उन्हें धर्म और सच्चाई का पुतला समझता था। पर आज मालूम हुआ कि वह लम्पट ही नहीं, परले सिरे के झूठे हैं। पूर्णा ने बहुत अच्छा किया। मार डालती तो और भी अच्छा करती। न मालूम उसने क्यों छोड़ दिया। तुम्हारा भाई समझकर उसे दया आ गई होगी?’
प्रेमा ने एक क्षण सोचकर संदिग्ध भाव से कहा–मुझे अब भी विश्वास नहीं आता। पूर्णा बराबर मेरे यहां आती थी। वह उसकी ओर कभी आंख उठाकर भी न देखते थे। इसमें जरूर कोई-न-कोई पेंच है। भैयाजी को बहुत चोट तो नहीं आयी।
दाननाथ ने व्यंग्य करके कहा–जाकर जरा मरहम पट्टी कर आओ न!
प्रेमा ने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा–भगवान जाने, तुम बड़े निर्दयी हो, किसी को विपत्ति में देखकर भी तुम्हें दया नहीं आती।
‘ऐसे पापियों पर दया करना दया का दुरुपयोग करना है। अगर मैं बगीचे में उस वक्त होता तो किसी तरह मेरे कानों में पूर्णा के चिल्लाने की आवाज पड़ जाती, तो चाहे फांसी ही पाता, पर कमला प्रसाद को जिंदा न छोड़ता, और फांसी क्यों होती, क्या कानून अंधा है, ऐसी दशा में मैं क्या, सभी ऐसा ही करते। दुष्ट, जिसे एक अनाथिनी पर अत्याचार करके लज्जा न आई; और वह भी जो उसकी शरण में आ पड़ी थी। मैं ऐसे आदमी का खून कर डालना पाप नहीं समझता।’
प्रेमा को ये कठोर बातें अप्रिय लगीं। कदाचित् यह बात सिद्ध होने पर उसके मन में ऐसे ही भाव आते, किंतु इस समय उसे जान पड़ा कि केवल उसे जलाने के लिए, केवल उसका अपमान करने के लिए यह चोट की गई है। अगर इस बात को सच भी मान लिया जाए, तो भी ऐसी जली-कटी बातें सुनकर बातें करने का प्रयोजन? क्या ये बातें दिल में ही न रखी जा सकती थीं?
उसके मन में प्रबल उत्कण्ठा हुई कि चलकर कमलाप्रसाद को देखकर आए पर इस भय से कि तब तो यह और भी बिगड़ जाएंगे, उसने यह इच्छा प्रकट न की। मन-ही-मन ऐंठकर रह गई।
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