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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


दाननाथ ने कुछ लज्जित होकर कहा–अब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि अमृतराय पर मेरा संदेह बिलकुल मिथ्या था। मैंने आंखें बंद करके कमलाप्रसाद की प्रत्येक बात को वेद-वाक्य समझ लिया था। मैंने अमृतराय पर कितना बड़ा अन्याय किया है, इसका अनुभव अब मैं कुछ-कुछ कर सकता हूं। मैं कमलाप्रसाद को आंखों से देखता था। इस धूर्त ने मुझे बड़ा चकमा दिया। न-जाने मेरी बुद्धि पर क्यों ऐसा परदा पड़ गया कि अपने अनन्य मित्र पर ऐसे संदेह करने लगा?

प्रेमा के मुख-मण्डल पर स्नेह का जैसा गहरा रंग इस समय दिखाई दिया वैसा और पहले दाननाथ ने कभी न देखा था। यह कुछ वैसा ही गर्वपूर्ण आनंद था, जैसे माता को दो रूठे हुए भाइयों के मनोमालिन्य के दूर हो जाने से होता है। बोली–अमृतराय की भी तो भूल थी कि उन्होंने तुमसे मिलना-जुलना क्यों छोड़ दिया? कभी-कभी आपस में भेंट होती रहती, तो ऐसा भ्रम क्यों उत्पन्न होता? खेत में हल न चलने से ही तो घास-पात जम आता है।

‘नहीं, उनकी भूल नहीं; सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायश्चित करुंगा। मैं एक जलसे में सारा भण्डाफोड़ कर दूंगा। इन पाखण्डियों की कलई खोल दूंगा।’

‘कलई तो काफी तौर पर खुल गई, अब उसे और खोलने की क्या जरूरत है।’

‘जरूरत है–कम-से-कम अपनी इज्जत बनाने के लिए इसकी बड़ी सख्त जरूरत है। मैं जनता को दिखा दूंगा कि इन पाखंडियों से मेरा मेल-मिलाप किस ढंग का था। इस अवसर पर मौन रह जाना मेरे लिए घातक होगा। उफ! मुझे कितना बड़ा धोखा हुआ। अब मुझे मालूम हो गया कि मुझमें मनुष्यों को परखने की शक्ति नहीं है; लेकिन अब लोगों को मालूम हो जाएगा कि मैं जितना जानी दोस्त हो सकता हूं, उतना ही जानी दुश्मन भी हो सकता हूं। जिस वक्त कमलाप्रसाद ने उस अबला पर कुदृष्टि डाली, अगर मैं मौजूद होता, तो अवश्य गोली मार देता। जरा इस षड्यंत्र को तो देखो कि बेचारी को उस बगीचे में लिवा ले गया, जहां दिन को आधी रात सा सन्नाटा रहता है। बहुत ही अच्छा हुआ! इससे श्रद्धा हो गई है। जी चाहता है, जाकर उसके प्रदर्शन करुं। मगर अभी न जाऊंगा। सबसे पहले इन बगुलाभगत की खबर लेनी है।

प्रेमा ने पति को श्रृद्धा की दृष्टि से देखा। उनका हृदय इतना पवित्र है, वह आज तक यह न समझी थी। अब तक उसने उनका जो स्वरूप देखा था वह एक कृतघ्न द्वेषी, विचारहीन, कुटिल मनुष्य का था। अगर यह चरित्र देखकर भी वह दाननाथ का आदर करती थी, तो इसका कारण यह प्रेम था, जो दाननाथ को उससे था। आज उसने उनके शुद्ध, निर्मल अन्तःकरण की झलक देखी। कितना सच्चा पश्चाताप था! कितना पवित्र क्रोध! एक अबला का कितना सम्मान!!

उसने कमरे के द्वार पर आकर कहा–मैं तो समझती हूं इस समय तुम्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ दिनों तक तुम्हें लोग बदनाम करेंगे; पर अंत में तुम्हारा आदर करेंगे। मुझे भी यही शंका है कि यदि तुमने भैयाजी का विरोध किया तो पिताजी को बड़ा दुःख होगा।

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