उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
क्लास में उनसे हास्यास्पद प्रश्न किए जाते। यहां तक कि एक दिन बरामदे में कई लड़कों के सामने चलते-चलते सहसा उन्होंने पीछे फिरकर देखा, तो एकयुवक को हाथ की चोंच बनाए पाया। युवक ने तुरंत हाथ नीचे कर लिया और कुछ लज्जित भी हो गया, पर दाननाथ को ऐसा आघात पहुंचा कि अपने कमरे तक आना कठिन हो गया। कमरे में आकर वह अर्द्ध-मूर्च्छा की दशा में कुर्सी पर गिर पड़े–अब वह एक क्षण भी यहां न ठहर सकते थे। उसी वक्त छुट्टी के लिए पत्र लिखा और चले आये। प्रेमा ने उनका उतरा चेहरा देख कर पूछा–कैसा जी है? आज सवेरे कैसे छुट्टी हो गयी?
दाननाथ ने उदासीनता से कहा–छुट्टी नहीं, सिर में कुछ दर्द था, चला आया। एक क्षण बाद फिर बोले–मैंने आज तीन महीने की छुट्टी ले ली है। कुछ दिन आराम करूंगा।
प्रेमा ने हाथ-मुंह धोने के लिए पानी लाकर रखते हुए कहा–मैं तो कभी से चिल्ला रही हूं कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर पहाड़ों की सैर करो। दिन-दिन घुले जाते हो। जलवायु बदल जाने से अवश्य लाभ होगा।
दान०–तुम तो चलती ही नहीं, मुझे अकेले जाने को कहती हो।
प्रेमा–मेरा जाना मुश्किल है। खर्च कितना बढ़ जायेगा। फिर मैं तो भली-चंगी हूं। जिसके लिए अपना घर ही पहाड़ हो रहा हो, वह पहाड़ पर क्या करने जाये?
दान०–तो मुझे ही क्या हुआ है, अच्छा खासा गैंडा बना हुआ हूं। इतना तैयार तो मैं कभी न था।
प्रेमा–जरा आईने में सूरत देखो!
दान०–सूरत मैं कम-से-कम सौ बार रोज देखता हूं। मुझे तो कोई फर्क नहीं नजर आता।
प्रेमा–नहीं, दिल्लगी नहीं, तुम इधर बहुत दुबले हो गये हो। तुम्हें खुद कमजोरी मालूम होती होगी, नहीं तुम भला छुट्टी लेते! छुट्टियों में तो तुमसे कॉलेज गये बिना रहा न जाता था, तुम भला छुट्टी लेते! तीन महीने तुम कोई काम मत करो–न पढ़ो, न लिखो! बस, घूमो और आराम से रहो। इन तीन महीनों के लिए मुझे अपना डॉक्टर बना लो। मैं जिस तरह रखूं, उस तरह रहो।
दान०–ना भैया, तुम मुझे खिला-खिलाकर कोतल बना दोगी।
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