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प्रतिज्ञा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :321
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8578
आईएसबीएन :978-1-61301-111

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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है


‘तुम दोनों खुद पागल हो।’

‘इसका फैसला तो डाक्टर करेगा।’

‘मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है?’

‘जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है। कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिए जाएंगे।’

‘तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो गोली मार दूंगा।’

‘बिलकुल पागलों की सी धमकी। संतकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाए, वरना जान का खतरा है।’

और दोनों मित्र उठ खड़े हुए। देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे। प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारह धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न ली। उनके जीवन की नीति थी– आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इसी नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न था। खासकर सिद्धांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे। वह इस षड्यन्त्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए। मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे? जिस दृढ़ता से सिन्हा ने धमकी दी थी वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था कि वह उस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त हैं, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे। उनका आत्मअभिमान गरज उठा–नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए कुछ भी सहना पड़े। डाक्टर भी क्या अंधा है? उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या यों ही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा! मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड़ गया हो। हुश! वह भी इन छोकरों की बातों में आये जाते हैं। उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता। उनकी बुद्धि सूर्य के प्रकाश की भांति निर्मल है। कभी नहीं। वह इन लौंडों के धौंस में न आएंगे।

लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था कि संतकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई। उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठा थे। उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरुष थे। अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे। पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझ खूब संभाले हुए थे। क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो। जब तक बड़े भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे। ऐसे खानदान में संतकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा? उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो।

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