उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
262 पाठक हैं |
‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
संतकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आंधी सी आ गई। क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ? जरूर कोई दैवीशक्ति है। भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गया।
बोला–आप ही की अनुमति का इन्तजार था।
‘मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं। मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।’
उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुईं वह कह सुनाईं।
सिन्हा ने नाक फुलाकर कहा–जब आपकी दुआ है तो हमारी फतह है। उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं।
संतकुमार ऐसा खुश था गोया आधी मंजिल तय हो गयी। बोला– आपने खूब उचित जवाब दिया।
सिन्हा ने तनी हुई ढोल की सी आवाज में चोट मारी ऐसे-ऐसे सेठों को उंगलियों पर नचाते हैं यहां।
संतकुमार स्वप्न देखने लगे–यहीं हम दोनों के बंगले बनेंगे दोस्त।
‘यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनेंगे।’
‘अन्दाज से कितने दिन में फैसला हो जाएगा?’
‘छह महीने के अंदर।’
‘बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवाएंगे।’
मगर समस्या थी, रुपये कहां से आयें। देवकुमार निस्पृह आदमी थे। धन की कभी उपासना नहीं की। कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करते। किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते। अपनी सारी पुस्तकों का कापीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे। वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे। अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी जहां से, कोई बड़ी रकम मिलती। उन्होंने समझा था संतकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे। लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांध कर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं? उनके भक्तों की काफी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रद्धा उनके चरणों पर अर्पण करें। मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे। वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो।
|