उपन्यास >> प्रतिज्ञा (उपन्यास) प्रतिज्ञा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास विषम परिस्थितियों में घुट-घुटकर जी रही भारतीय नारी की विवशताओं और नियति का सजीव चित्रण है
पूर्णा–कुछ नहीं, असमंजस क्या है?
कमला०–तो आदमियों को जाकर भेज दूं।
पूर्णा–भेज दीजिएगा, अभी जल्दी क्या है?
कमला०–तुम व्यर्थ ही इतना संकोच करती हो पूर्णा–क्या तुम समझती हो तुम्हारा जाना मेरे घर के और प्राणियों को बुरा लगेगा?
कमला का अनुमान ठीक था। पूर्णा को वास्तव में यही आपत्ति थी, पर वह संकोच-वश इसे प्रकट न कर सकती थी। उसने समझा, बाबूजी ने मेरे मन की बात ताड़ ली। इससे वह लज्जित भी हो गई। बाबू साहब के घरवालों के विषय में ऐसी धारणा उसे न करनी चाहिए थी, पर कमलाप्रसाद ने उसके संकोच का शीघ्र ही अन्त कर दिया। बोले–तुम्हारा यह अनुमान बिलकुल स्वाभाविक है पूर्णा! लेकिन सोचो, मेरे घर में ऐसा कौन-सा आदमी है जो तुम्हारा विरोध कर सके। बाबूजी की स्वयं यह इच्छा है। मुझे तुम खूब जानती हो। पं. वसन्त कुमार से मेरी कितनी गहरी दोस्ती है, यह तुमसे छिपा नहीं, प्रेमा तुम्हारी सहेली ही है, अम्मांजी को तुमसे कितना प्रेम है, वह तुम खूब जानती हो; रह गयी सुमित्रा, उसे जरा कुछ बुरा लगेगा। तुमसे कोई परदा नहीं; लेकिन उसकी बातों की परवाह कौन करता है? उसे खुश रखने का भी तुम्हें एक गुर बताए देता हूं, कभी-कभी यह मन्त्र फूंक दिया करना, फिर वह कभी तुम्हारी बुराई न करेगी। बस उसकी सुन्दरता की तारीफ करती रहना। यह न समझना कि रम्भा या उर्वशी कहने से वह समझ जाएगी कि यह मुझे बना रही है। तुम चाहे जितना बनाओ, वह उसे यथार्थ ही समझेगी। इसी मन्त्र से मैं उसे नचाया करता हूं। यही मन्त्र तुम्हें बताए देता हूं।
पूर्णा को हंसी आ गई। बोली–आप तो उनकी हंसी उड़ा रहे हैं। भला ऐसा कौन होगा, जिसे इतनी समझ न हो।
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